घाघ व भड्डरी की ‘‘मिश्रित-कहावतें’’!!


घाघ व भड्डरी की मिश्रित-कहावतें
घाघ व भड्डरी की मिश्रित-कहावतें
घाघ और भड्डरी एक व्यक्ति थे या दो, इस संबंध में विवाद है, परन्तु कहावतों को पढ़कर व उसकी शैली देखकर अनुमान होेता है कि ये एक ही व्यक्ति के दो नाम थे। विद्वानों का मानना है कि इनका जन्म संवत् 1753 में उ0प्र0 के कानपुर जिले में हुआ था। प्रस्तुत है इनकीं कुछ और मिश्रित कहावतें-

गाय दुहे बिन छाने लावै, गरमागरम तुरंत चढ़ावै।
बाढ़ै बल और बुद्धी भाई, घाध कहै यह सच्ची गाई।।

घाघ! कहते हैं गाय का धारोष्ण (वह दूध जो गाय के थनों से सीधा पिया जाता है) दूध बिना छानै पीने से बल और बुद्धि बढ़ती है।

 

लेखक-संजय कुमार गर्ग  sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
मेहनत करै जो दंड उठाय, कहै घाघ यह ब्योरा गाय।
कभी बीमार पड़ै नहीं भाय, वहिके बाद जो दूध जमाय।।

घाघ कहते हैं जो मुग्दर (व्यायाम की एक भारी गदा की तरह की लकड़ी) घुमाकर व्यायाम करते हैं, और फिर दूध पीते हैं, ऐसे व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ते।

 

खेती तो उनकी जो अपने कर हल हांकें।
उनकी खेती कुछ नहीं जो सांझ सबेरे झांके।।

भडडरी कहते है-जो मनुष्य अपने हाथ से हल जोतते हैं, उन्हें ही खेती में लाभ होता है। जो लोग सुबह शाम निगरानी करते हैं तथा नौकरों से खेती कराते हैं, उन्हें कुछ लाभ नहीं होता।


उलटौ जो बादर चढ़े, विधवा खड़ी नहाय।
घाघ कहैं सुन भडडरी, वह बरसे वह जाय।।

घाध कहते हैं कि हवा से विपरित चलने वाला बादल अवश्य बरसता है तथा खड़ी होकर स्नान करने वाली विधवा की निर्लज्जता से पता चलता है कि वह अवश्य किसी के साथ भाग जायेगी।

लेखक-संजय कुमार गर्ग  sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
सुथना पहिर के हर जोते, और पौला पहिर निरावै।
घाघ कहैं ये तीनों भकुआ, सिर बोेझा ले गावै।।

भड्डरी कहते हैं कि जो व्यक्ति पैजामा पहन कर हल जोतता है, जो खड़ाऊं पहनकर खेत निराता है और जो सिर पर बोझ रख कर गाना गाता है ये तीनों मूर्ख हैं।


बनिये कसखरज ठाकुरकहीन वैद को पूत ब्याध नहिंचीन।
पंडित चुप वेश्या मइल कहै घाघ पांचों घर गइल।।

भड्डरी! कहते हैं, यदि बनिये का खर्चीला पुत्र हो, ठाकुर का पुत्र तेजहीन हो, वैद्य के पुत्र का रोग निदान ठीक न हो, पण्डित चुप रहने वाला हो और गणिका मैले वस्त्र पहनने वाली हो तो ये शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। 



नसकटपनही बतकट जोय, जो पहिलौटी बिटिया होय।
तातरिकृषि बौरहा भाई, घाघ कहै दुख कहां समाई।।

कवि घाघ! कहते हैं पैर काटने वाला जूता, बात काटने वाली औरत, पहली संतान यदि पुत्री हो, थोड़ी खेती तथा पागल भाई ये सभी दुखदायी हैं।
 
ढिल ढिल बेंट कुदारी, हंसि के बोलै नारी।
हंँसि के मांगे दामा, तीनों काम निकामा।।
घाघ! कहते हैं फावड़े का ढीला बेंट, हँसकर बात करने वाली औरत और हँसकर तकादा करना ये तीनों काम बुरे हैं, ये कार्य को बिगाड़ते ही हैं बनाते नहीं हैं।

 

लेखक-संजय कुमार गर्ग  sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
अधकचरी विद्या दहै, राजा दहै अचेत।
ओछे कुल तिरिया दहै, दहै कलर का खेत।।
घाघ! कहते हैं कि अपूर्ण विद्या, असावधान राजा, निम्न कुल की स्त्री और कपास का खेत नष्ट होने योग्य होता है।


दुश्मन की किरपा बुरी, भली मित्र की त्रास।
आडंगर गरमी करैं, जल बरसन की आस।।
घाघ! कहते है शत्रु की दया की अपेक्षा मित्र की फटकार अच्छी है, जैसे गर्मी की अधिकता से कष्ट मिलता है, परन्तु जल बरसने की आशा होने लगती है।

 

चोर जुवारी गंँठ कटा, जार और नार छिनार।
सौ सौगन्धे खाय जो, घाघ न करू इतवार।।
घाघ! कहते हैं चोर, जुआरी, जेबकतरा, जार (परस्त्रीगामी) और बदचलन स्त्री, सौ कसमें खाये तो भी इन पर विश्वास नहीं करना चाहिये।

लेखक-संजय कुमार गर्ग  sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
सब चिन्ता को छांडि़ कै, करि प्रभु में विश्वास।
वाकै थापै, सब थपै, बिन थापे हो नाश।।
अन्त में घाघ! कहते हैं सब चिन्ताओं को छोड़कर भगवान में विश्वास करना चाहिए। उसमें निष्ठा करने से सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं, बिना उसके सर्वनाश होता है।

संकलन-संजय कुमार गर्ग 
 (चित्र गूगल-इमेज से साभार!)

4 टिप्‍पणियां :

  1. उत्तर
    1. आदरणीय राजीव जी कमेंट्स करने के लिए धन्यवाद!

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  2. पहली बार इन कवियों के नाम सुन रहा हूँ ! मैंने इन इसलिए लिखा कि मुझे लगता है ये दो लोग रहे होंगे जिनकी सोच और कविताओं में समानता बहुत है इसलिए भ्रम हुआ होगा कि ये दो नहीं बल्कि एक ही आदमी हैं ! दोहे बहुत ही सार्थक हैं और आपने उनका भावार्थ लिखकर उन्हें और भी समझने लायक बना दिया है संजय जी !

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    1. आदरणीय योगी जी! ब्लॉग को संज्ञान में लेने व् कमेंट्स करने के लिए सादर धन्यवाद!

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