मौत से मुलाकात !! (रोमांच-कथा)


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सौरभ भारतीय विद्या भवन नई दिल्ली से ‘‘ज्योतिष अलंकार‘‘ कर रहा था। उसकी कक्षाऐं सप्ताह में शनिवार व रविवार को ही लगती थी। वो अपने शहर से ट्रेन से आता था व सदर बाजार स्टेशन, नई दिल्ली से ही वापसी की ट्रेन पकड़ता था। सौरभ अपनी कक्षा अटेंड करके सायं 6 बजे के आसपास वापस आने के लिए अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी दो आदमी उसके पास
 आये और उसकी ही बेंच पर बैठ गये। बातचीत प्रारम्भ हुई, पता चला इन्हें भी उसी ट्रेन से गाजियाबाद जाना है, जिससे सौरभ को अपने शहर जाना था। 
    सदर बाजार स्टेशन से यात्रा करनेे वाले पाठकबन्धु परिचित होंगे, कि प्लेटफार्म नं0 2 पर गाजियाबाद की तरफ से आने वाली लाइन पर खतरनाक मोड है, वहां उस तरफ से आती ट्रेन तब स्टेशन से नजर आती है, जब वह मात्र स्टेशन से 50 मी0 की दूरी पर रह जाती है।
      तभी उनमें से एक बोला- ‘‘वह ट्रेन तो सामने वाले प्लेटफार्म पर आ रही है।" यह कहकर उसने सौरभ का हाथ पकड़ लिया, चलो! लाइनपार करके उस स्टेशन पर चलते हैं?
      सौरभ बोला-‘‘मैं कभी स्टेशनों पर लाइनपार नहीं करता, यदि ट्रेन आयेगी भी, तो भी मैं पुल से ही जाऊंगा, भले ही ट्रेन निकल जाये!"
      उस व्यक्ति ने सौरभ का हाथ पकड़े रखा, और बोला- तुम ‘‘सिवेलियन" के साथ ये ही दिक्कत है, कि तुम डरते बहुत हो!
       उसका दूसरा साथी फोन पर बात करने में मग्न था और पीछे ही खड़ा था।
     भाई! मैं तो सामने वाले प्लेटफार्म पर जा रहा हूं, उसने सौरभ के पकड़े हुए हाथ को "मज़बूरी" में छोड़ते हुए कहा, और वह बिना दाएं-बाएं देखे पटरियों पर कूद गया। उसका दूसरा साथी अब भी फोन पर बात करने में व्यस्त था।
      उसके पटरी पर कूदते ही, उसी लाइन पर सौरभ को ट्रेन आती दिखी, वो तो लाइन पार कर ही रहा था, परन्तु सौरभ भी स्टेशन पर होकर भी रेलवे लाइन के इतना नजदीक था, यदि वह वही खड़ा रहता तो ट्रेन की पूरी तरह जद में था, क्योंकि तीव्र गति से आती ट्रेन से उत्पन्न वायुवेग से उसके भी हवा में लहराकर, ट्रेन से टकराने की शत-प्रतिशत संभावना थी, सौरभ तुरन्त पीछे हटा और जमीन पर तेजी से गिरते हुए (क्योंकि जमीन पर लेटने से उसके हवा में उड़ने की सम्भावना बहुत कम थी) पटरी पार कर रहे, व्यक्ति की ओर चीखा-भाई ट्रेऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽन----।
      सौरभ की बात पूरी भी न हो पायी थी कि नाॅन स्टाॅप राजधानी एक्सप्रेस प्लेटफार्म से गुजर रही थी, सौरभ ने भय से अपनी आंखे बन्द कर ली, कदाचित इतनी दर्दनाक मौत वो नहीं देख पाता।
      तभी ट्रेन के इमरजेन्सी ब्रेक लगने की आवाज आयी, सौरभ ने धीरे से आंखे खोलकर देखा कि ट्रेन के पहिये चिंगारी उगल रहे हैं, इसका मतलब था ट्रेन के इमरजेन्सी ब्रेक लग रहे हैं। ट्रेन स्टेशन से दूर जाकर रूक गई। लगता था, ड्राइवर को आभास हो गया था कि कोई ट्रेन के आगे कूदा है।
      उसका साथी भी फोन हाथ में लिए सौरभ के पास भाग कर आ गया और पटरियों की तरफ झांकते हुये बोला-‘‘खुद तो मरा, तुम्हें भी ले मरता, परन्तु मुझे तो जीते-जी ले मरा!!’’
     भाई!!! तुम्हे क्यों ले मरा?? तुम तो ठीक ठाक खड़े हो? सौरभ ने आहिस्ता से जमीन पर बैठते हुए, अपने कपड़ों की धूल झाड़ते हुए पूछा??
      अरे यार! हम दोनों पुलिस में हैं, और ‘‘ऑन डयूटी" हैं, गाजियाबाद अपने पर्सनल काम से जा रहे थे!" इस युवक के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थीं।
     इतने में रेलवे पुलिस के 4-5 सिपाही भागे हुए प्लेटफार्म पर आ गये, हमसे बोले ट्रेन के आगे कौन कूदा है??? वो कहां हैं??? 
     सौरभ जमीन पर ही बैठा रहा और उसने कोई जवाब नहीं दिया!
    आगे कूदने वाले सिपाही का साथी दूर जाकर फोन मिलाने लगा, उसके चेहरे की चिंता और भावों को देखकर साफ लगता था, कि वह उसे ही फोन मिला रहा है जो अभी ट्रेन के आगे कूदा है। अचानक उसका चेहरा खिल उठा, सौरभ तुरंत उठकर उसके पास पहुंचा-पूछा! क्या वो "सेफ" है?
    वो बोला! थैक्स गाॅड! वो ठीक है! ट्रेन उसे छूकर निकली थी, परन्तु वो चपेट में आने से बच गया है, सामने वाले प्लेटफार्म पर पैसेंजर्स की भीड़ में दुबक गया है, कही पुलिस उसे आत्महत्या के प्रयास के जूर्म में गिरफ्तार न कर ले। इतना कहते ही उसने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगायी और उस स्टेशन पर जाने के लिए पुल की तरफ तेजी से बढ़ गया।
    सौरभ की ट्रेन उसी प्लेटफार्म पर आयी, जिस पर वो लोग खड़े थे, सौरभ उसमें जाकर बैठ गया, अब भी सौरभ बुरी तरह घबरा रहा था, उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, वह अपनी दिल की धड़कनों को नियंत्रित करने के लिए प्राणायाम करने लगा। सौरभ की लाइफ में ऐसे कई हादसें बहुत जल्दी-जल्दी हो चुके थे। 
     ट्रेन चल पड़ी, मन्दिर की घंटियों ने सौरभ की तंद्रा भंग कर दी, सौरभ अपने बैग में अपनी "गोमुखी और माला" देखने लगा। सोचने लगा पता नहीं कौन सी ‘‘शक्ति" या ‘‘दुआ" मेरी हिफाजत कर रही है, तभी उसे एक शायर साहब का 'शेर' याद आ गया-
न जाने कौन 'दुआओं' में याद रखता है,
मैं   डूबता    हूं   समुद्र   उछाल  देता  है।
      और सौरभ अपने मन को, माला के, मनकों के माध्यम से "मन्त्र" की अतल गहराईयों में उतारने का प्रयास करने लगा।
                              लेखक-संजय कुमार गर्ग (sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
(प्रस्तुत कहानी  
सत्य घटनाक्रम पर आधारित है। पात्रों के नाम,स्थान आदि सभी काल्पनिक हैं।)

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