गोपाल दास ‘नीरज’ के दर्द भरे श्रेष्ठ हिन्दी मुक्तक!
(1)
फिर वही शहर, वही शाम, वही तेरी तलाश,
मुस्कुराते हुए तट पर उदास बैठा हूं,
तेरी कसमों की कसम तुझसे, तेरी नजरों से
दूर होकर भी बहुत, तेरे पास बैठा हूं।
(2)
और वे ख्वाब जिन्हें खुद तू यहां छोड़ गयी,
एक बच्चे की तरह उंगली पकड़ लेते हैं,
करते हैं जिद कि उन्हें तेरे घर सुला आऊं,
डांटता हूं तो मुझे देख के रो देते हैं।
(3)
चांद की बांह में उलझाये लचकती बांहें
कोई शरीफ, कोई शोख लहर आती है,
उड़ते पानी की तरह याद तेरी उड़-उड़कर
कभी दामन को, कभी दिल को भिगो जाती है।
(4)
रंग-बिरंगी दुनिया तो यह रेशम वाली साड़ी है।
जनम कि जिसका पल्लू-गोटा मरण कि छोर किनारी है
कोई पहने इसे प्यार से, कोई ओढ़े पछताकर
चमक न इसकी घटी, गई गो लाखों बार उतारी है।
(5)
जितनी देखी दुनिया सबकी देखी दुल्हने ताले में,
कोई कैद पड़ा मस्जिद में, कोई बन्द शिवाले में,
किसको अपना हाथ थमा दूं, किसको अपना मन दे दूं?
कोई लूटे अंधियारे में, कोई ठगे उजाले में।
(6)
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गया सिंगार सभी बाग के बबूल से।
और हमें खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।
संकलन-संजय कुमार गर्ग
मुक्तक/शेरों-शायरी के और संग्रह
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