स्त्री-पुरूष परस्पर पूरक हैं |
”नारी” के संबंध
में विभिन्न ग्रन्थों, विचारकों, व दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न व्याख्याएं
की हैं। ‘मनुस्मृति’ में जहां नारी को ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते
तत्र देवता’ कहा, वही ‘तुलसीदास जी’ ने ‘नारी को ताड़ना का अधिकारिनी
बताया’, वही ‘महाभारत’ में स्त्री को पूजन योग्य, भाग्यशाली, गृहप्रकाश,
गृहलक्ष्मी आदि कहा गया। एक महान संत ने तो नारी को नरक का द्वार ही मान
लिया। आधुनिक विचारकों में ‘महादेवी वर्मा’ का मानना था-”काव्य और प्रेमी
दोनों नारी हदय की संपत्ति हैं, पुरूष विजय का भूखा है, तो नारी समर्पण की,
पुरूष लूटना चाहता है, नारी लूट जाना।” ‘जेम्स स्टीफन’ ने कहा-
“स्त्रियां पुरूषों से अधिक बुद्धिमती होती है, क्योंकि वे पुरूषों से कम
जानती हैं, किन्तु उनसे अधिक समझती है।” नारी को छाया मात्र मानने वाले
पश्चिमी विचारक ‘चेम्फर्ट’ का मानना था-”नारी पुरूषों की छाया मात्र है,
उसको पाने का प्रयास करो तो वह दूर भागती है, यदि उससे पलायन करो तो वह
अनुसरण करती है।” विचारक फिलिडग का तो मानना था-”अधिकांश पुरूष नारियों
में वह खोजते हैं, जिनका स्वयं उनके चरित्र में अभाव होता है।” ‘महात्मा
गांधी’ ने कहा कि “जीवन में जो कुछ पवित्र और धार्मिक है, स्त्रियां
उसकी विशेष संरक्षिकाएं है।” ‘किपलिंग’ का तो यहां तक मानना था कि “नारी
का अनुमान भी पुरूष के पूर्ण निश्चय सेे कही सत्य होता है।” अंग्रेजी के
महान साहित्यकार ‘सेक्सपियर’ ने तो नारी को छलनामयी बताया, वही ‘साइरस’ ने
कहा-”नारी या तो प्रेम करती है या फिर घृणा, इसके बीच का कोर्इ मार्ग उसे
ज्ञात नहीं।“-लेखक-संजय कुमार गर्ग sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
नारी व नारीत्व पर अनेक विचार, विचारकों ने व्यक्त किये हैं, उनमें से अधिकतर उसे ‘देवी’ बनाकर
-लेखक-संजय कुमार गर्ग sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
वे बोले बेटा-कल हमारे पोते अंशु ने हम दोनों के चश्में तोड दिये हैं! हममें से एक का प्लस का नम्बर है दूसरे का माइनस का नम्बर है। अत: में इन्हें अपनी नजरों से टीवी दिखा रहा हूं और ये मुझे अपनी नजरों से पेेपर पढ़ा रही हैं, हम एक दूसरे की आंखे बने हुए हैं। उन्होंने हंसते हुए कहा।
पाठकजनों! क्या अक्सर ऐसा देखने में नहीं आता? पति-पत्नी में एक की ‘पास’ की नजर कमजोर होती है, दूसरे की ‘दूर’ की कमजोर होती है, एक का स्वभाव ‘उग्र’ होता है तो दूसरा थोडा ‘शान्त’ होता है, एक ‘रिजर्व’ होता है दूसरा ‘फ्रेंक’ होता है, एक ‘सुन्दर’ होता है दूसरा अपेक्षाकृत ‘कम सुन्दर’ होता है? ये सब क्या है? क्या ये हमें ‘र्इश्वर’ प्रदत्त उपहार नहीं है, कि एक की न्यूनाधिकता को दूसरा पूर्ण कर देता है?वास्तव में एकाकी ‘स्त्री-पुरूष’ अपने आप में अपूर्ण है, पुरूष जहां शारीरिक रूप से सबल है, वही स्त्री मानसिक रूप से मजबूत होती है, पुरूष में द्रष्टि होती है, नारी में अंतद्रष्टि होती है।2 र्इश्वर ने उनकी रचना इस प्रकार की है, कि वे एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं पूरक बन कर रहें। केवल ‘भावी संतति’ सृजन के लिए ही नहीं, वरन उसके पालन पोषण के लिए भी ‘नर-नारी’ एक दूसरे पर आश्रित हैं। स्त्री- पुरूष मूल में सम्पृवत हैं। ईश्वर ने अपने आपको दो खण्डों में विभाजित किया, वे दो खण्ड परस्पर पति-पत्नी हो गये।3 भगवान ‘शंकर’ ने ‘अर्धनारिश्वर‘ रूप में तथा अनेक ‘देेेवी-देेेेवताओं’ व ‘अवतारों’ ने “युगल रूप” में अवतरित होकर जनमानस में इसी संदेश को प्रस्तुत किया है। प्रबुद्ध समाज ने भी विवाह जैसी संस्था बनाकर “र्इश्वर” के इसी संदेश को आत्मसात किया तथा नर-नारी को पति-पत्नी के रूप में एक सूत्र में बांधकर सम्पूर्णता प्रदान कर दी। विवाह में पुरूष का जीवन स्त्री की पूर्ति करता है और स्त्री का जीवन पुरूष के जीवन को पूर्ण बनाता है, स्त्री और पुरूष सम्मिलित होकर मानवता को पूर्ण बनाते हैं।4दो लाइनों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूँ-
यूं तो जन्म-जन्म का है साथ हमारा,
हरेक जन्म में मिलेे औेर बिछडे हैं हम।
1.जायसी
2.विक्टर हयूगो
3.वृद्धारण्यक उपनिषद
4.हिप्पेल
4.हिप्पेल
-लेखक-संजय कुमार गर्ग sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
(चित्र गूगल-इमेज से साभार!)
स्त्री- पुरूष मूल में सम्पृवत हैं। ईश्वर ने अपने आपको दो खण्डों में विभाजित किया, वे दो खण्ड परस्पर पति-पत्नी हो गये।3 भगवान ‘शंकर’ ने ‘अर्धनारिश्वर‘ रूप में तथा अनेक ‘देेेवी-देेेेवताओं’ व ‘अवतारों’ ने “युगल रूप” में अवतरित होकर जनमानस में इसी संदेश को प्रस्तुत किया है।
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक और अनूठी पोस्ट लिखी है आपने श्री संजय जी ! भूरि भूरि प्रशंसा करने को जी चाहता है !
aadarniya yogi ji! saadar naman! blog par aane v comments karne ke liye saadar aabhaar!
जवाब देंहटाएंYery truth
जवाब देंहटाएंकमेंट्स के लिए सादर आभार! आदरणीय भाई जी!
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