"मौन"
रहने से मेरा तात्पर्य 'मितभाषी' होने से है, मौन रहने से जहां व्यक्ति की
'ऊर्जा' संरक्षित रहती है, वही उसे मानसिक शान्ति का भी अनुभव होता है।
मौन रहकर ही हम किसी 'विषय' का गहराई से 'चिंतन' कर सकते हैं और विषय की
'तह' तक पहुंच सकते हैं। जितने भी उच्चस्तर के संत-महात्मा-वैज्ञानिक तथा
लेखक-कवि-साहित्यकार हुए हैं, उनके उच्च स्तर के 'कृत्य' व 'कृति' के पीछे
मौन की ही साधना रही है। इसलिए 'मौन रहो और अपनी सुरक्षा करो, मौन तुम्हारे साथ कभी विश्वासघात नहीं करेगा।'1
लेखक-संजय कुमार गर्ग sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
लेखक-संजय कुमार गर्ग sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
अति का भला न बोलना, अति की भलि न चुप
अति का भला न बरसना, अति की भलि न धूप
लेखक-संजय कुमार गर्ग sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
एक अरबी कहावत है-"मौन के वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं।" महात्मा "चाणक्य" ने भी कहा है-"मौने च कलहो नास्ति" अर्थात मौन रहने से (कलह) झगड़ा नहीं होता ।
व्यवहारिक जीवन का भी यही नियम है कि "वाकयुद्ध" में अन्तत: वही विजयी होता है जो कम बोलता है। यदि कोई मेरी बात में विरोधाभाष देखे तो इस लोकोक्ति को ह्रदयगम कर ले-"एक चुप सौ को हराये"
"प्रगल्भ" न बने सोच-समझ कर बोले, जो बिना बात सुने बीच में कुछ भी बोल देते हैं, उन्हें बाद में पछताना पड़ता है, कहा भी गया है-
जीभरिया कह बावरी कहि गई सरग पताल।
आपुनि कही भीतर भई जूती खात कपार।।
इसलिए खामोश रहो या ऐसी बात करो जो खामोशी से बेहतर हों।2
"मौन साधना" में लीन जब "लेखक" किसी 'विषय-विशेष' पर गहराई से चिंतन करता हैं तो उसका 'सुपरचेतन मन' सुदूर अंतरिक्ष में मंडरा रही उस 'विषय-विशेष' से संबंधित घटनाओं को अपनी 'चुम्बकीय शक्ति' से आकृषित करके उनसे तदात्म स्थापित कर लेता है, जिससे नई -नई बातें उस 'विषय-विशेष' के संबंध में उसके 'मानस-पटल' पर अंकित होती चली जाती है और "लेखक" एक "उत्कृष्ट-रचना" को जन्म देने की स्थिति में आ जाता है।
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अंत में, 'वामिक' जौनपुरी की चार लाइनों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं-
मेरी ख़ामोशी से बरहम न हो ऐ दोस्त
मेरी ख़ामोशी से बरहम न हो ऐ दोस्त
चलने वाले ही तो दम लेते हैं चलने के लिए
पी लिया करते हैं जीने के तमन्ना में कभी
डगमगाना भी जरूरी है संभलने के लिए।
1जान ब्वायल
2पिथागोरस
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ज्योतिष व वास्तु पर आलेख-
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