एक कापालिक से सामना (सत्य कथा)

सौरभ अपने स्कूल में ऑफिस में बैठा हुआ था, ये उसका अपना स्कूल था जिसमें वह प्राचार्य था, उसके साथ उसके कुछ स्टॉफ के लोग भी ऑफिस में कुछ जरूरी काम कर रहे थे। तभी स्कूल के गेट से जोर की आवाज आयी....
अलख निरंजन........
सभी ने स्कूल गेट की ओर देखा।
एक साधु स्कूल के गेट से चलता हुआ ऑफिस के गेट पर आकर खड़ा हो गया। उसके पीछे कुछ लोगों की भीड़ थी, साधु एक लंबे कद का बिल्कुल स्याह काले रंग का था, शरीर पर गेहुएं बेतरतीब वस्त्र, गले में रूद्रांक्ष की मालाएं और उसके हाथ में एक इंसानी खोपड़ी थी। अपनी मोटी-मोटी लाल आंखों से उसने सभी को घूरा और जोर से बोला...
अलख निरंजन बच्चा...
सौरभ ने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया और अपनी अपलक दृष्टि उनके चेहरे पर जमाते हुआ बोला, आदेश महाराज!!!
इससे पहले वह साधु कुछ बोलता, साथ चली आ रही भीड़ में से एक बोला-ये महाराज, किसी के भी मन की बात बता देते हैं, या तक की किसी ने आज क्या खाया है, ये तक बता देते हैं, आप भी कुछ पूछिये सर जी......
ये सुन कर सौरभ ने अपनी तेज नजरें साधु के चेहरे पर जमायी और चुप रहा।
अचानक साधु बोला-क्या सोच रहे हो, तुम्हारे दरवाजे पर एक अंतरयामी कापालिक (तांत्रिक, श्मशान पर इंसानी कपाल के साथ साधना करने वाला) खड़ा है, आशीर्वाद नहीं लेगा??
सौरभ पुनः हाथ जोड़कर बोला-महाराज आदेश दीजिए, आप क्या खायेंगे, या चाय पीयेंगे?? वैसे मेरी अपने मन की बात जानने की कोई इच्छा नहीं है-सौरभ ने आगे कहा!
हम भारत भ्रमण पर हैं उसके लिए मुझे कुछ धन की सहायता चाहिए, मैं तेरे से 1100/- की भेंट चाहता हूं... कहते हुए कापालिक आगे बढ़ा और सौरभ के कान के पास चुटकी मारते ही भभूत प्रगट कर दी और सौरभ के हाथ में रख दी।
भीड़ ने विस्मित होकर ताली बजायी...
सौरभ एकटक साधु को देखते हुए उसके मन को पढ़ने का प्रयास करते हुए बोला-महाराज भारत भ्रमण के लिए आपको धन की क्या आवश्यकता है? आपसे कोई ट्रेन में टिकट नहीं मांगेगा, होटल ढाबे वाला आपको भोजन कराने से इंकार नहीं करते? फिर आपको धन की क्या आवश्यकता है? आप तो कापालिक हैं, कापालिक धन-दिखावे से दूर रहते हैं?
तू मुझे सीख दे रहा है? एक कापालिक को पढ़ा रहा है मास्दर! -लाल आंखों से घूरते हुए कापालिक ने सौरभ को घूरते हुए कहा!
सौरभ के स्कूल का एक अध्यापक कापालिक को बड़े ही आदर व जिज्ञासा भरी नजरों से देख रहा था, सौरभ कद्ाचित इस बात को भांप चुका था, उसने साधु से कहा-महाराज! ये हमारे शर्मा जी है, चलिए आप इनके मन की बात बताइये?
उस कापालिक ने अपनी लाल-लाल आंखों से शर्मा जी को देखा और बोला-बच्चा एक कॉपी पेंसिल निकाल लें, साधु के साथ आयी भीड़ उत्सुकतापूर्वक देखने लगी, जबकि सौरभ अपने काम में पुनः लग चुका था, क्योंकि ये बातें सौरभ के मन में उत्सुकता नहीं जगाती थीं, क्योंकि वो स्वयं साधक था।
स्कूल के अध्यापक शर्मा जी ने प्रसन्नतापूर्वक कॉपी पेंसिल निकाल ली और साधु की ओर देखने लगे।
आज आपने क्या खाया है? इस कॉपी पर पांच बार लिखो!
शर्मा जी लिखने लगे-साधु ने शर्मा जी पर अपनी दृष्टि जमा दी और बोला-दलिया खाया था ना आज तुमने बच्चा?
जी महाराज! शर्मा जी बोले! साथ आयी भीड़ ताली बजाने लगी।
अब अपने किसी पंसदीदा फल का नाम लिखो? कापालिक बोला!
शर्मा जी फिर लिखने प्रारंभ किया....
सेब.....? कापालिक बोला!
बिल्कुल ठीक महाराज! शर्मा जी ने हाथ जोड़ते हुए कहा!
इसी प्रकार अनेक चीजों को उस कापालिक ने बताया, भीड़ उसकी प्रशंसा करते नहीं थक रही थी। सौरभ अपने काम में लगा हुआ था परन्तु वह मन ही मन सारी गतिविधियों को देख और समझ रहा था। अचानक कापालिक सौरभ की ओर बड़ा और सबको हाथ दिखाते हुए, सौरभ के माथे पर चुटकी बजायी और लाल रंग प्रगट कर दिया, लाल रंग सौरभ के माथे पर लग चुका था और सौरभ से बोला-तू कुछ नहीं पूछेगा मास्टर? अब कापालिक कुछ गुस्से में था।
आप वास्तव में अंतरयामी हैं, लीजिए चाय पीजिए-सौरभ ने कापालिक की ओर चाय बढ़ाते हुए विनम्रतापूर्वक कहा!
बस इतना सहयोग, तू लगता है मुझे नहीं पहचान पाया मास्टर! कापालिक अब और गुस्से में लग रहा था।
महाराज भारत भ्रमण के लिए, अब तो आपके पास पर्याप्त धन हो गया होगा, सौरभ ने भीड़ को ओर देखते हुए कहा?
सौरभ की ये बात सुनकर कापालिक सकपका गया और कनखियों से भीड़ की ओर देखते हुए बोला, परन्तु मैं तेरे मन की बात बताना चाहता हूं? तू क्या मुझे दस मिनट नहीं दे सकता, मास्टर? कापालिक बोला!
ठीक है महाराज! यदि आप यही चाहते हैं तो.....कहते हुए सौरभ ने अपना रजिस्टर एक तरफ रखा और शर्मा जी से कॉपी-पेंसिल ले कर बैठ गया और कापालिक की ओर देखने लगा!
बताइये महाराज आप क्या बताना चाहते हैं?? सारी भीड़ उत्सुकतापूर्वक एक-दूसरे के कंधे पर चढ़ने का प्रयास करने लगी, कद्ाचित कापालिक सौरभ की इच्छा शक्ति को पहचानने में गलती कर रहा था।
आज तुमने प्रातः क्या खाया? कागज पर पांच बार लिखो-कापालिक ने उत्साहपूर्वक कहा।
सौरभ ने पहले ही ये भांप लिया था कि कापालिक किसी व्यक्ति की मानसिक तरंगों को पढ़ सकता है, और ये क्षमता कोई भी स्त्री-पुरूष जप-ध्यान से अपने अंदर उत्पन्न कर सकता है, ये कोई चमत्कार नहीं है, ये एक मानसिक शक्ति है, जो हर किसी के अंदर है, आवश्यकता इसे जगाने भर की है। परंतु सौरभ इससे भी कुछ ज्यादा था, वह अपने मन को एक साथ अलग-अलग दो विषयों पर एकाग्र कर सकता था। जैसे गायत्री जप करने के साथ-साथ उसके अर्थ का मन ही मन चिंतन करना। 
सौरभ ने लिखना प्रारंभ कर दिया, सौरभ ने कागज पर ‘चना’ लिखा, परंतु दिमाग में ‘दलिया’ सोच रहा था...सौरभ में ये क्षमता थी, वह अपने मन को दो अलग-अलग धाराओं में नियंत्रित कर सकता था उसकी इस क्षमता के बारे में मैं अपनी दूसरी कहानी ‘‘वह उसकी पत्नि नहीं थी?’’ में भी बता चुका हूं।
कापालिक बोला-‘दलिया’ 
सौरभ ने कापालिक को इस प्रकार ‘चना’ लिखा हुआ कागज दिखाया कि कोई ओर न देख सके और जोर से चिल्लाया महाराज! बिल्कुल ठीक....आपने बिल्कुल ठीक बताया है..... और ‘चना’ लिखे हुए कागज को फाड़ कर फेंक दिया...भीड़ चिल्लायी वाह...वाह..महाराज!!
कापालिक ये देख थोड़ा खिसिया गया, परंतु अपनी खिसियाहट को दबाते हुए बोला.....अपनी पंसदीदा फल लिखो???
सौरभ ने फिर वैसा ही किया, मन ही मन ‘अनार‘ सोचते हुए उसने कागज पर ‘सेब’ लिखा।
कापालिक बोला-‘अनार’ अनार है ना? सौरभ ने फिर सबसे छुपाते हुए कापालिक को ‘सेब’ लिखा हुआ दिखाया और परचा फाड़ते हुए चिल्लाया, वाह...महाराज वाह...आपने बिल्कुल ठीक बताया है।
खड़े हुए लोग कापालिक की जयजयकार करने लगे, अब कापालिक के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगी, उसने धीरे-धीरे मुस्कराते हुए, हाथ जोड़े बैठे सौरभ को देखा।
महाराज अब बस कीजिए....आप वास्तव में अंतरयामी हैं! 
नहीं......अब अपना पंसदीदा जानवर लिखिए और उस परचे को सबको दिखाइये--कापालिक अपने आपको जबरदस्ती संभालने की कोशिश करते हुए बोला।
परन्तु इस बार भी वहीं हुआ, कापालिक को सौरभ ने अपनी इच्छा शक्ति से धोखा दे दिया और वह सौरभ के मन को सही नहीं पढ़ पाया। 
महाराज! क्या परचा सभी को दिखाना है? सौरभ ने शरारती अंदाज में कापालिक से पूछा?
नहीं.....! सौरभ के हाथ से परचा लेकर फाड़ते हुए कापालिक ने सौरभ को आश्चर्य मिश्रित आंखों से देखते हुए कहा! अब कापालिक एकटक, अपलक दृष्टि से सौरभ की ओर देख रहा था।
अब सौरभ भीड़ से बोला, अब आप लोग यहां से जाइये, मुझे महाराज से बात करनी है, भीड़ धीरे-धीरे आपस में महाराज की प्रशंसा करते हुए वहां से चली गयी। अब सौरभ ने स्टॉफ को भी ऑफिस से बाहर भेज दिया, अब ऑफिस में सौरभ और कापालिक ही थे।
आपने ये कैसे किया?? और मेरी बेइज्जती भी नहीं होने दी, आप कौन हैं? क्या आप भी साधक हैं, गुरू जी... अब कापालिक के सुर बदल चुके थे, वो अब मास्टर से गुरू जी पर आ गया था। जबकि सौरभ अब भी कापालिक के आगे हाथ जोड़े बैठा था।
महाराज! मैं भी एक छोटा सा साधक हूं यहां स्कूल में पढ़ाने के साथ-साथ मैं लोगों को योग-मेडिटेशन आदि सिखाता हूं, मेरे अनेक साधक आंखों पर पट्टी बांधकर, पढ़ सकते हैं, बाइक व साइकिल चला सकते हैं। आप वास्तव में अंतरयामी हैं, इसमें दो राय नहीं है-मृदुभाषी सौरभ बोला। आपने मेरे मन की बात को सही पढ़ा, परन्तु आपने वही पढ़ा, जो मैंने आपको भेजा, परन्तु आप वह नहीं पढ़ पाये जो मैंने लिखा, क्योंकि लिखा हुये शब्द मैंने आपको भेजे ही नहीं.....आपने केवल मेरे भेजे संदेश को रिसीव किया, क्योंकि मैंने पहले ही भांप लिया था कि आप केवल संदेश रिसीव कर सकते हैं, भेज यानि सेन्ड नहीं कर सकते, जबकि महाराज! ईश्वरीय अनुकंपा से मैं संदेश पढ़ना और भेजना दोनों जानता हूं-सौरभ ने पुनः हाथ जोड़ते हुए मधुरवाणी में कापालिक से कहा।
यानी ‘टेलिपैथी’ ??? कापालिक बोला!
बिल्कुल सही महाराज!!! सौरभ ने कापालिक की ओर चाय बढ़ाते हुए कहा।
अब कापालिक बिल्कुल शांत हो चुका था, एक सांसारिक आदमी मुझसे बड़ा साधक है? अब कापालिक दुःखी था।
महाराज! ये साधनाएं जन्म-जन्मांतरों की साधनाएं होती हैं, हो सकता है, पिछले जन्म में मैंने उच्च साधना की हो, इसके परिणामस्वरूप मैं आज संसार में रहकर भी साधना कर पा रहा हूं-सौरभ ने कापालिक के मन में उमड़ रहे प्रश्न को भांपते हुए सांत्वना देते हुए कहा। यदि आप इन साधनाओं को पैसे कमाने या प्रदर्शन मात्र करने का साधन न बनाते तो हो सकता है आप बहुत बड़े साधक होते-सौरभ ने कापालिक को समझाते हुए कहा।
आपने मेरी आंखे खोल दी हैं, अब मैं भी अपनी साधनाओं का प्रदर्शन नहीं करूंगा और इनसे समाज की सेवा करूंगा, आपने मेरी आंखे खोल दी गुरू जी! कापालिक हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
सौरभ ने कापालिक के हाथ जोड़कर, चरण स्पर्श किये और उन्हें दक्षिणा देकर, संतुष्ट करके वहां से विदा किया...क्योंकि वो भी किसी कापालिक का रूष्ट नहीं करना चाहता था।
(कहानी एक सत्य घटना पर आधारित है, कथा का मनोरंजक व ज्ञानवर्द्धक बनाने के लिए उसे कहानी का रूप दिया गया है। कहानी के पात्र काल्पनिक हैं)  -लेखक : संजय कुमार गर्ग
                                 

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