जातस्य हि ध्रुवों मृत्युध्र्रुवं..........("परकाया-प्रवेश" रहस्य कथा)

जातस्य हि ध्रुवों..
जातस्य हि ध्रुवों..
पिकनिक मनाने आये कुछ छात्र नदी के बहाव में बह गये थे।  उनमें से कुछ छात्रों के शव मिल गये थे, बाकि छात्रों की खोज चल रही थी। किसी के जीवित रहने की संभावना न्यून थी। शवों को खोेजने के लिए अनेक टीमें लगायी गयी थीं। नदी का जल रोक दिया गया था ताकि शवों को खोजने में परेशानी न हो। खोजते हुए एक टीम ऐसे स्थान पर पहुंची, जहां नदी घने जंगलों के बीच से जा रही थी। जेठ की तेज धूप में ‘दौड़-धूप‘ करती टीम जंगल में कुछ देर विश्राम के लिए चली गई। तभी उन्होेंने देखा एक युवक पेड़ों की छाॅव में, एक चट्टान पर ध्यानमग्न है। जिज्ञासावश पास जाकर देखा, तो वो युवक लापता छात्रों में से एक था, जो इस समय केवल लंगोटी बांँधे हुए ध्यानावस्थित था।
अरे ये तो ‘सौरभ‘ नाम का छात्र है!-टीम का मुखिया, बहुत सारे फोटो में से एक फोटो से उसका चेहरा मिलाते हुआ बोला।
लेखक-संजय कुमार गर्ग  sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
सभी तेजी से उसके पास पहुँंचे, और उसे झिझोड़ते हुए बोले, सौरभ! तुम जीवित हो? तुम यहां क्या कर रहे हो?
मैं सौरभ नहीं हूँ! ‘छात्र‘ ने अपनी आंखें खोलते हुए कहा।
आप यहां से जाइये, ये जंगल है, यहां जंगली जानवर हैं! छात्र ने कहा, और आंखें मूंदकर पुनः ध्यानमग्न हो गया।
खोजी टीम ने तुरन्त इसकी सूचना अपने वायरलैस से कंट्रोल रूम को दी। जहां पर अनेक छात्रों के परिजनों के साथ सौरभ के परिजन भी किसी बुरे/अच्छे समाचार की प्रतीक्षा में थे।
कुछ ही घंटों में सौरभ के माता-पिता व डाक्टरों की टीम वहां पहुंच गई।
सौरभ की माता ‘छात्र‘ को देखते ही उससे चिपटकर जोर-जोर से रोने लगी।
बेटा! सोनू! तुम ठीक हो ना? ये क्या भेष बना लिया है, तुमने?
मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूँ! युवक ने अपनी आंँखें खोलते हुए कहा!
तुम्हारी आवाज को क्या हो गया है सोनू? ये कैसे बदल गई? पापा! आपको नहीं डाटेगें, आप हमारे साथ चलो! मम्मी ने ‘‘सौरभ‘‘ के चेहरे पर प्यार से हाथ फिराते हुए कहा।
हांss बेटा!! इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं थी, ये एक दुर्घटना मात्र थी! पिता ने अपने आँंसू पूछते हुए कहा!
परन्तु माता! मैं तुम्हारा पुत्र नहीं हूंँ, तुम्हारा पुत्र तो मर चुका है! मैं तो एक ‘योगी‘ हूँ, मैंने तुम्हारे मृत-पु़त्र के शरीर में ‘परकाया प्रवेश‘ द्वारा अपनी ‘आत्मा‘ का प्रवेश करा दिया है! युवक ने गंभीर स्वर में कहा।
वहां उपस्थित सभी के चेहरे पर अविश्वास के भाव थे, सौरभ की माता उसे चिपट कर जोर-जोर से विलाप करने लगी।
नहींऽऽ बेटा! सोनू! ऐसा मत कहो! तुम हमारे साथ चलो, सब ठीक हो जायेगा! मां ने सिसकते हुए उससे कहा!
माता! मेरा विश्वास करो! मैं एक योगी हूँ, मेरी आयु सौ वर्ष से भी ज्यादा है, मेरा शरीर 'कृशकाय' हो चुका था, मैं काफी दिनों से एक युवा मृत शरीर की तलाश में था। कल मुझे नदी में बहते हुए तीन मृत शरीर मिले, दो शव काफी क्षत-विक्षत हो चुके थे, केवल इसी युवक का शरीर अच्छी स्थिति में था। अतः इस युवक के शरीर में मैंने योग क्रिया द्वारा अपनी आत्मा का प्रवेश करा दिया, और अपने 'कृशकाय' शरीर का अपने हाथों से ही अंतिम संस्कार कर दिया। ‘योगी-युवक‘ ने कुछ दूरी पर उठते हुये धुएं की ओर संकेत करते हुए कहा।
नहीं!! तुम मेरे सोनू ही हो! सौरभ की माता उससे चिपटते हुए, रोती हुई बोली।
दो शव कहां है? सौरभ के दादा जी ने उस ‘योगी-युवक‘ से पूछा।
वो मेरी कुटिया के पीछे रखे हैं, अभी मैंने उनका दाहसंस्कार नहीं किया है! ‘योगी-युवक‘ ने उत्तर दिया।
टीम तेजी से वहां पहुंची, देखा वास्तव में दो युवकों के शव, वहां घास से ढके रखे है, वे नदी में बहने वाले छात्रों के ही थे।
लेखक-संजय कुमार गर्ग  sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
हम कैसे विश्वास करें, आप जो कह रहे, वो सच है? सौरभ के दादा जी ने विनम्र स्वर में कहा।
क्या आप हमें उन दो मृत शरीरों में से किसी एक शरीर में अपनी आत्मा का प्रवेश करा कर दिखा सकते हैं? दादा जी गंभीर स्वर में बोले।
पुत्र! वो शरीर काफी क्षतिग्रस्त हैं, उसमें मेरी आत्मा ज्यादा समय तक नहीं रह सकती, तुम्हें विश्वास दिलाने के लिए मैं ये भी करने के लिए तैयार हूंँ। ‘योगी-युवक‘ ने कहा।
‘योगी-युवक‘ ने गहरीे सांस खींची व अपने आँंखे मूंद ली। उसका शरीर निढाल होकर पत्थर पर लुढक गया, डाक्टर ने उसके शरीर का निरीक्षण किया। 
लेखक-संजय कुमार गर्ग  sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
अरे!! शरीर की धड़कने तो बन्द हो गयी हैं, शरीर की गरमाई भी समाप्त हो गयी है, मैं दावे से कह सकता हूँ कि ये अब जीवित नहीं है! डाक्टर ने अपना स्टेथोस्कोप कान से निकालते हुए कहा। सौरभ की माता शव से चिपटकर जोर-जोर से रोने लगी। सभी शव के चारों ओर खड़े थे।
पुत्र!!! देखो? एक परिचित सी तेज आवाज उनके पीछे से आयी।
पीछे देखते ही उनकी चीखें निकल गई, दो मैं से एक क्षत-विक्षत शव खड़ा था!
अब तो विश्वास है पुत्र! ‘योगी‘ की आवाज अब उस शव में से आ रही थी। यह कहकर वह शव जमीन पर लुढ़क गया। सभी आश्चर्य से उसे देख रहे थे।
सौरभ के शरीर में चेतना लौटने लगी, शरीर धड़कने लगा। शरीर पर हाथ रखे बैठा डाक्टर डर कर उछल पड़ा। 
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हे! मेरे ईश्वर! ये सब क्या है!! डाक्टर घबराकर पीछे हटता हुआ बोला।
निढाल पड़े सौरभ के शरीर में पुनः चेतना लौट आयी और वो इस प्रकार उठ कर बैठ गया, मानो किसी नींद से जागा हो।
बेटा!! तुम योगी हो या कुछ और तुम मेरे पुत्र सौरभ ही हो। तुम्हे हमारे साथ चलना ही होगा! सौरभ की मां ने सुबकते हुए, ‘योगी‘ का हाथ पकड कर खींचते हुए कहा।
मां! पिछले सौ वर्षो से दुर्गम स्थान व बियावान जंगल मेरी शरणस्थली रहे हैं, अपने माता-पिता, भाई-बन्धुओं को भी मैंने सौ वर्ष पहले त्याग दिया था, अब तो सारा संसार ही मेरा परिवार है। मां! मैं तेरे साथ कैसे जा सकता हूंँ? योगी कुछ देर शान्त रहे फिर बोले-परन्तु मां! मैं तेरा ऋणी हूँ, क्योंकि तेरे द्वारा प्रसूत व पोषित शरीर में मेरी आत्मा स्थिति है, अतः आज से तू मेरी माता हुई! यह कहकर योगी ने सौरभ के माता-पिता के सामने साष्टांग प्रणाम किया। सुबकते हुए माता-पिता के चरणों में ही योगी कुछ देर शान्त बैठे रहे, और फिर बोले!
मां!! मैं तुझे आज दो वचन देता हूंँ, पहला ये-जब भी और जहां भी, तू अपने पुत्र को याद करेगी, मैं सशरीर तेरे सामने उपस्थित हो जाऊंगा। दूसरा ये है कि तेरा मृत पुत्र ‘सौरभ‘ तेरा ‘नाती‘ बनकर, तेरी पुत्री के गर्भ से इस संसार में पुनः जन्म लेगा-‘योगी‘ के चेहरे पर गंभीर भाव थे। सभी की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी।
अंधेरा होने वाला है, अब आप इस जंगल से जाइये! कहकर ‘योगी‘ पुनः उसी चट्टान पर बैठकर ध्यान मग्न हो गये।
खोजी दल ने दोनों शवों को स्ट्रेचर पर लाद लिया। सौरभ के पिता और दादा, सौरभ की माता को वहां से ले जाने लगे।
‘योगी‘ के मुख से, ‘अस्फुट‘ स्वर में ‘‘श्रीमद्भागवत‘‘ का श्लोक ‘प्रस्फुटित‘ होने लगा-
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्र्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्माद् परिहार्येऽर्थे न त्वं शोचि तुमर्हसि।।
अर्थात जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुर्नजन्म भी निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्त्तव्य पालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
 (कहानी के पात्र, स्थान, घटनाक्रम आदि काल्पनिक हैं)
   लेखक-संजय कुमार गर्ग  sanjay.garg2008@gmail.com (All rights reserved.)
(चित्र गूगल-इमेज से साभार!)

4 टिप्‍पणियां :

  1. ​मैंने संजय जी इस लेख पर अपनी टिप्पणी दी थी लेकिन अब नही दिखाई दे रही है ! खैर कोई नही ! इंसान कितना भी कुछ करे , मोह माया , ममता छूट नहीं पाता है ! हम इंसान ही तो हैं , तो भावनाएं भी रहेंगी ही ! ये जानते हुए भी की एक न एक दिन हम सबको यहां इस दुनिया से विदा होना है ! बहुत ही गंभीर और सार्थक लेखन

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    1. योगी जी, सादर नमन! आपने बिल्कुल ठीक लिखा है, मोह-माया के बंधन कभी नहीं छूटते! कॉमेंट्स के लिए आभार योगी जी!

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  2. संसारिक मोह माया के जाल मनुष्य ऐसे उलझ जाता है !की वो सच्चाई को स्वीकारने का सहास नही करता !बहुत अच्छी post.धन्यवाद !

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    1. कमेंट्स के लिए धन्यवाद! राका जी!

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