भर्तृहरि नीति |
भर्तृहरि ने अपने शतकम् को तीन भागों में बांटा है यथा नीति शतकम्-श्रंगार शतकम् व वैराग्य शतकम्। इस आलेख में, मैं नीति शतकम् के चुनिंदा श्लोक आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ -
नीति शतकम्
में मनुस्मृति और महाभारत की गम्भीर नैतिकता, कालीदास की-सी प्रतिभा के
साथ प्रस्फुटित हुई है। विद्या, वीरता, दया, मैेत्री, उदारता, साहस,
कृतज्ञता, परोपकार, परायणता आदि मानव जीवन को ऊंचा उठानेेेे वाली उदात्त
भावनाओं का उन्होेेेंनेेे बड़ी सरल एवं सरस पद्यावली में वर्णन किया है।
उन्होंने इसमें जिन नीति-सिद्धांतों का वर्णन किया है वे मानव मात्र के लिए
अंधरेेे में दीपक के समान हैं।
अज्ञानी की निन्दा करते हुये भर्तृहरि लिखते हैं-‘‘अज्ञानी
को आसानी से समझाया जा सकता है ज्ञानी को और भी सरलता से समझाया जा सकता
है किन्तु ज्ञान-लव-दुविर्दग्ध (थोड़ा जानकर ही अपने को पंडित मानने वाले
को) को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते।‘‘ (2)
भर्तृहरि बताते हैं कि मुझे अपनी मूर्खता का पता कैसे चला-‘‘जब मैं अल्पज्ञ था तब मदोन्मत्त हाथी की भांति घमण्ड से अन्धा हो गया था और मैं यह समझता था कि ‘मैं सब कुछ जानता हूँ‘ परन्तु जब बुद्धिमानों के संसर्ग से कुछ-कुछ ज्ञान हुआ तब पता चला कि ‘मैं तो मूर्ख हूंँ‘, उस समय मेरा अभिमान ज्वर की भांति उतर गया।‘‘(7)
भर्तृहरि ज्ञानहीन को क्या कहते हैं?-‘‘जो मनुष्य साहित्य, संगीत कला, और कलाओं (शिल्प आदि) से अनभिज्ञ है वह बिना पूंछ और सींग का पशु ही है। यह मनुष्य रूपी पशु बिना घास खाये ही जीवित रहता है और यह प्राकृत पशुओं के लिए बड़े सौभाग्य की बात है, अन्यथा यह पशुओं का चारा और घास ही समाप्त कर देता।(11)
विद्याधन की प्रशंसा करते हुये भर्तृहरि लिखते हैं-‘‘विद्या ही मनुष्य की शोभा है, विद्या ही मनुष्य का अत्यंत गुप्त धन है। विद्या भोग्य-पदार्थ, यश और सुख देने वाली है। विद्या गुरूओं का भी गुरू है। विदेश में विद्या कुटुम्बी-जनों के समान सहायक होती है। विद्या ही सबसे बड़ा देवता है, राज्य सभाओं में विद्या का आदर सम्मान होता है, धन का नहीं! अतः विद्या-विहीन मनुष्य पशु के तुल्य होता है।‘‘(19)
भर्तृहरि कहते हैं निम्न व्यक्तियों को अलंकार की आवश्यकता नहीं है-‘‘मनुष्य के पास यदि क्षमा (सहनशीलता) हो तो उसे कवच की क्या आवश्यकता? जो क्रोधी है उसे शत्रुओं से क्या प्रयोजन? जिसकी जाति बिरादरी है उसे अग्नि से क्या? यदि हितैषी सच्चे मित्र हैं तो अमोघ व दिव्य औषधियों से क्या लाभ? यदि दुर्जनों के साथ सम्पर्क है तो सांपों का क्या काम? जिसके पास निर्दोष विद्या है उसे धन से क्या वास्ता? जो लज्जा शील है उसे अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता? जो सुन्दर कविता कर सकता है उसके लिए राज्य क्या वस्तु है।‘‘(20)
भर्तृहरि ने पुरूषों की तीन श्रेणियां बतायी हैं-‘‘नीच या अधम श्रेणी के मनुष्य विध्नों के भय से किसी कार्य को आरम्भ ही नहीं करते, मध्यम श्रेणी के लोग कार्य का आरम्भ करके भी विध्न आने पर विध्नों से विचलित होकर बीच में कार्य को छोड़ देते हैं परन्तु उत्तम श्रेणी के मनुष्य विध्नों के द्वारा बार-बार ताडि़त किये जाने पर भी प्रारम्भ किये हुये कार्य को पूर्ण किये बिना नहीं छोड़ते।‘‘(26)
भर्तृहरि ‘मान-शौर्य‘ की प्रशंसा इस प्रकार करते हैं-‘‘मदमस्त गजराज के फाड़े हुये मस्तक के मांस को ही खाने की इच्छा रखने वाला, अभिमानियों में अग्रगण्य, भूख के कारण क्षीण, बुड़ापे के कारण दुर्बल एवं दीन, पराक्रम से हीन, शोचनीय दशा को प्राप्त, नष्टतेज और मरणासन्न सिंह क्या कभी सूखी घास खा सकता है? कभी नहीं।‘‘(28)
‘गम्भीरता‘ धारण करने को वे एक महान गुण मानते हैं-‘‘कुत्ता टुकड़ा देने वाले के सामने पूँछ हिलाता है, उसके पैरों पर गिरता है, फिर पृथ्वी पर लेट कर मुख और पेट दिखाता है, परन्तु गजराज अपने अन्नदाता की ओर गम्भीरता से देखता है और सैकड़ों खुशामदों के बाद ही भोजन करता हैै।‘‘(30)
भर्तृहरि कहते हैं, निम्न कार्यो की अति से बचना चाहिए-‘‘खोटी सम्पत्ति रखने से राजा, अधिक मेल-जोल से योगी, लाड़-प्यार से पुत्र, अध्ययन न करने से ब्राह्मण, कुपुत्र से कुल, दुष्टों के संग से शील, मद्यपान से लज्जा, देखभाल न करने से खेेती, विदेश में अधिक रहने से प्रेम, स्नेह न होने से मित्रता, अनीति से ऐश्वर्य और अन्धाधुन्ध दान देने या व्यय करने से धन नष्ट हो जाता हैै।‘‘(38)
भर्तृहरि ने धन की तीन गतियां बतायी-‘‘दान देना, उपभोग करना और नष्ट हो जाना-धन की ये तीन ही गतियां हैं। जो न दान देता है और न भोग करता है उसके धन को तीसरी गति (अर्थात नष्ट हो जाता है) प्राप्त होती है।‘‘(39)
भर्तृहरि बताते है, ‘‘निम्न की शोभा कृशता या दुर्बलता में ही हुआ करती हैं-‘‘खराद पर घिसा हुआ हीरा, शस्त्रों द्वारा घायल किया गया संग्राम-विजेता, मदमस्त हाथी, शरद ऋतु में कुछ-कुछ सुखे हुये किनारों वाली नदी, रतिक्रीडा में दली-मली गयी नवयौवना नारी, और अतिदान के कारण कंगाल हुआ पुरूष-इन सभी को शोभा कृशता अथवा दुर्बलता में ही होती है।‘‘(40)
भर्तृहरि दुष्टों व्यक्तियों के बारे में कहते हैं-‘‘दुष्ट लोग लज्जाशील को मुर्ख, व्रत में रूचि रखने वाले को दम्भी, पवित्र पुरूषों को कपटी, शूरवीर को दयाहीन, मुनि को विपरित बुद्धि, मधुर-भाषी को दीन, तेजस्वी को घमण्डी, सुवक्ता को बड़बड़ाने वाला, और धीर गम्भीर शान्त मनुष्य को असमर्थ कहते हैं। गुणियों का ऐसा कौन सा गुण है जिसे दुष्टों ने कलंकित न किया हो।‘‘ (50)
भर्तृहरि कहते हैं ये चीजें मुझे कांटों की तरह चुभती हैं-‘‘दिन के समय कांतिहीन चन्द्रमा, यौवनहीन स्त्री,(इस बात से मैं 'लेखक' सहमत नहीं?) कमल रहित सरोवर, सुन्दर पुरूष का विद्यारहित मुख, धन-लोलुप राजा, सदा दुर्दशा में पड़ा हुआ सत्पुरूष तथा राज्यसभा में सम्मानित दुर्जन-ये सातों मुझे कांटे की भांति चुभते हैं।‘‘ (52)
सेवा धर्म को भर्तृहरि बहुत कठिन मानते हैं-‘‘सेवक मौन रहने पर गूंगा, बातचीत करने में निपुण हो तो बावला, अथवा बकवासी, पास रहने पर ढीठ, दूर रहने पर बुद्धिहीन, क्षमा करने से डरपोक, और असहिष्णु होने पर अकुलीन कहलाता है अतः सेवा धर्म बहुत कठिन है, योगियों के लिए भी इसे निभाना और समझना कठिन है।‘‘(54)
दुर्जनों की प्रीति का वर्णन भर्तृहरि बड़ी बुद्धिमता से करते हैं-‘‘जैसे दिन के पहले भाग की छाया पहले लम्बी और फिर क्रमशः घटती चली जाती है वैसे ही दुष्ट की मित्रता भी पहले अत्यंत घनिष्ट प्रतीत होती है परन्तु धीरे-धीरे कम होती जाती है, इसके विपरीत सज्जन की मित्रता आरम्भ में स्वल्प-सी होती है परन्तु बाद में मध्याह्नोत्तर की छाया के समान उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है।‘‘(56)
भर्तृहरि कहते हैं, संगति से ही व्यक्ति में गुण-अवगुण आते हैं-‘‘गर्म लोहे पर पड़ी हुई पानी की बूंद का नामो-निशान नहीं रहता, वही बूंद कमल के पत्ते पर गिरकर मोती के समान चमकने लगती है, फिर वही बूंद स्वाति नक्षत्र में समुद्र की सीप मेें गिरकर मोती बन जाती है अतः यह सिद्ध हुआ कि अधम, मध्यम और उत्तम गुण मनुष्य में संत्सर्ग से ही उत्पन्न होते हैं।‘‘ (63)
निम्न में से एक को चुनने की सलाह भर्तृहरि देते हैं-‘‘मनुष्य को एक ही देव में भक्ति रखनी चाहिये, चाहे वो विष्णु हो अथवा शिव, एक ही मित्र बनाना चाहिए चाहे वह राजा हो या योगी, एक ही स्थान पर रहना चाहिए चाहे वह नगर हो या वन और एक ही पत्नी होनी चाहिए, चाहे व सुन्दर स्त्री हो या पर्वत की कन्दरा गुफा अर्थात वैराग्य।‘‘(65)
भर्तृहरि कहते हैं कि, परोपकारी से परोपकार करने के लिए कोई नहीं कहता-‘‘बिना याचना किये ही सूर्य कमल-समूह को विकसित करता है, चन्द्रमा भी बिना किसी प्रेरणा से स्वयं ही कुमुदों को प्रफुल्लित करता है, बादल भी बिना प्रार्थना के ही जल बरसाते हैं, इसी प्रकार सज्जन भी अपने आप परोपकार में लगे रहते हैं।‘‘(70)
भाग्य और पुर्वसंस्कार के बारे मे भर्तृहरि बहुत सुन्दर लिखते हैं-‘‘यद्यपि मनुष्य को अपने पूर्वजन्म कृत कर्मो के अनुसार फल मिलता है सुख-दुख की प्राप्ति होती है और बुद्धि भी कर्मानुसार ही प्राप्त होती है फिर भी बुद्धिमान मनुष्य को विचारपूर्वक ही कर्म करना चाहिए।‘‘(83)
भर्तृहरि कहते हैं भाग्य का लिखा कोई नहीं मिटा सकता-‘‘यदि करील के वृक्ष पर पत्ते नहीं लगते तो इसमें बसन्त ऋतु का क्या दोष? यदि उल्लू को दिन में नहीं दिखाई देता तो इसमें सूर्य का क्या अपराध? यदि चातक के मुंह में वर्षा की बूंदे नहीं पड़ती तो इसमें बादल का क्या दोष? भगवान ने जिसके भाग्य में जो लिखा है उसे कौन मिटा सकता है?‘‘(86)
भर्तृहरि कहते हैं निम्न परिस्थितियों में मनुष्य के पूर्वजन्म के संस्कार ही उसकी रक्षा करते हैं-‘‘वन में, युद्ध में, शत्रुओं से घिरने पर, जल में , अग्नि में, महासमुद्र में, पर्वत की चोटी पर, सुप्त अवस्था में, असावधानी की दशा में, तथा संकट पड़ने पर मनुष्य के पूर्व जन्मकृत कर्म ही उसकी रक्षा करते हैं।‘‘(89) -संकलन-संजय कुमार गर्ग 87918205465 Whatsapp
(चित्र गूगल-इमेज से साभार!)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (26-10-2014) को "मेहरबानी की कहानी” चर्चा मंच:1778 पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
प्रकाशोत्सव के महान त्यौहार दीपावली से जुड़े
पंच पर्वों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय शास्त्री जी, सादर नमन! ब्लॉग पर आने व् चर्चा मंच पर मेरे ब्लॉग को सम्मिलित करने के लिय सादर आभार!
हटाएंसुंदर लेखन व लेखनी , धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
आदरणीय अवस्थी जी! सादर नमन! ब्लॉग पर आने व् कमेंट्स करने के लिए सादर आभार!
हटाएंBahut rochak jaankari va shlok jo aapne hame padhwaya... aisa kam hi padhne ko milta hai..anand aaa gya ... Aabhar !!
जवाब देंहटाएंआदरणीया परी जी, सादर नमन! आपको श्लोक अच्छे लगे उसके लिए आभार!
हटाएं‘जो मनुष्य साहित्य, संगीत कला, और कलाओं (शिल्प आदि) से अनभिज्ञ है वह बिना पूंछ और सींग का पशु ही है। यह मनुष्य रूपी पशु बिना घास खाये ही जीवित रहता है और यह प्राकृत पशुओं के लिए बड़े सौभाग्य की बात है, अन्यथा यह पशुओं का चारा और घास ही समाप्त कर देता।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया ज्ञानवर्धक जानकारी और बढ़िया शलोक पढ़वाए आपने .........जानकारी के लिए बहुत बहुत आभार संजय जी
सादर
संजय भास्कर
Recent Post कुछ रिश्ते अनाम होते है:) होते
संजय जी! सादर नमन! ब्लॉग पर आने व् कमेंट्स करने के लिए धन्यवाद!
हटाएंभर्तृहरि जी के बारे में जानना और समझना बहुत अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंआदरणीय दिगम्बर जी, सादर नमन! ब्लॉग पर आने व् कमेंट्स करने के लिए सादर धन्यवाद!
हटाएंबढ़िया है भर्तृहरी . सरल हिन्दी में.
जवाब देंहटाएंआदरणीय संतरमन जी! सादर नमन! ब्लॉग पर आने व् कमेंट करने के लिए सादर आभार!
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