प्रिय पाठकों! भर्तृहरि ने तीन शतक लिखे हैं-यथा नीति शतक, श्रृंगार शतक व वैराग्य शतक। प्रत्येक शतक में सौ श्लोक हैं। भर्तृहरि के श्रृंगार शतकम में भी 100 श्लोक हैं, जिनमें स्त्रियों के रूप, रंग, हाव-भाव आदि के बारे में विस्तार से चर्चा की है, मेरी अपनी राय में यह स्त्रियों पर लिखा गया ‘‘विश्वकोष’’ होना चाहिए। इससे पहले भी मैं महाराज ‘‘भर्तृहरि की नीति’’, ‘‘भर्तृहरि का श्रृंगार शतकम काम व कामिनी का विश्वकोष’’, ‘‘भर्तृहरि का वैराग्य शतकम" तथा ‘‘भर्तृहरि के वैराग्य शतकम-अंतिम भाग’’ पर आलेख पर चार आलेख लिख चुका हूं, आप पाठकों बहुत ज्यादा मांग पर मैं भर्तृहरि के श्रृंगार शतकम पर दूसरा पार्ट ले कर आया हूं। आशा है इसे भी आप पहले जैसा प्यार देगें।
भर्तृहरि नारी के नेत्रों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि ‘‘कभी भौंहों के मनोहर कटाक्ष, कभी लज्जामय चंचल विलास, कभी भय से भयभीत हो जाना, कभी लीलापूर्ण कोमल हास से युक्त नीले कमल के समान सुन्दरी तरूणियों के नेत्र सब स्थानों पर अपना प्रभाव दिखाते हैं।’’ ।। 4 ।।
मुझे लगता है बिहारी जी का निम्न दोहा भर्तृहरि जी के इस श्लोक से प्रभावित है-
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बाज।।
अर्थात सखी कह रही है कि नायक अपनी आँखों के इशारे से दूर खड़ी नायिका से रति की प्रार्थना करता है, किंतु नायिका उसके रति विषयक निवेदन को नेत्रों के इशारे से ही अस्वीकार कर देती है। परन्तु उसका अस्वीकृति ही स्वीकृति का वाचक है, नायक नायिका की अस्वीकृति पर भी रीझ जाता है। उसका रीझना देख, नायिका खीज जाती है, इस प्रकार लोगों से भरे स्थानों पर रिझने और खीझने का सिलसिला केवल आंखों के इशारे से ही चलता है।
भर्तृहरि बताते हैं कि युवतियों के स्वाभाविक आषूषण कौन से होते हैं ‘‘चन्द्रमा की कांति को फीका करने वाला मुख, कमलों को लजाने वाले दो नयन, स्वर्ण को निन्दित करने वाली शरीर की कांति, भौरों से भी अधिक काले केष, गजराज के गण्डस्थल की शोभा को हरने वाले उन्नत कुच, उच्च नितम्ब, मधुर और कोमल वाणी विलास-ये सब युवतियों के स्वाभाविक आभूषण हैं।’’ ।। 5 ।।
भर्तृहरि कहते हैं कि ‘‘यौवनावस्था में पदार्पण करने वाली मृगनयनियों की कौन सी वस्तु सुन्दर नहीं होती? उनमें तो सभी कुछ रमणीय होता है जैसे मुख पर मन्दहास तो कुछ विशेष रमणीय ही होता है, दर्शन सम्पत्ति (नेत्रों का देखने का ढंग और कांति) सरल एवं चंचल होती है, भाषण की शैली विलासयुक्त एवं माधुर्य से परिपूर्ण होती है। चाल का उपक्रम मन्द एवं भिन्न-भिन्न प्रकार की अनेक लीलाओं से संबंध रखता है।’’ ।। 6 ।।
भर्तृहरि आगे लिखते हैं कि ‘‘कामदेव निश्चय ही भ्रुकुटीवाल कामिनियों का आज्ञापालक सेवक है, तभी तो वह जिस ओर उसके नेत्र इंगित करते हैं उस ओर जाने के लिए सर्वदा उद्यत रहता है अर्थात जिस ओर वह संकेत करती हैं कामदेव उसी को वशीभूत कर लेते हैं।’’ ।। 11 ।।
भर्तृहरि नारी को धनुर्विधा का योद्धा बताते हुए कहते हैं ‘‘हे सुन्दरी! तुममें धनुर्विधा का कौन सा अपूर्व गुण है जिसके द्वारा तुम युवकों के हृदयों को वेध डालती हो, वाणों की तुम्हे आवश्यकता ही नहीं पड़ती।’’ ।। 13 ।।
भर्तृहरि कहते हैं कि मैं किस कटि प्रदेश की शरण लूं, मुझे समझ नहीं आता-‘‘हे आर्यों! ईष्र्या-द्वेष या पक्षपात को त्याग, कर्तव्यकर्म का विचार कर मर्यादा का ध्यान रखते हुए उत्तर दो कि मुझे पर्वतों के नितम्ब अर्थात गुहा, कन्दरा आदि का आश्रय लेना चाहिए, अथवा कामदेव से मुस्कुराती विलासिनियों के कटि-प्रदेश अर्थात स्त्री नितम्ब का आश्रय लेना चाहिए।’’ ।। 18 ।।
भर्तृहरि बताते हैं कि स्त्रियां क्या नहीं कर डालती-‘‘ये सुन्दर नेत्रों वाली रमणियां मनुष्यों के दयायुक्त हृदय में प्रविष्ट होकर उन्हें सम्माहित करती हैं, मतवाला बना देती हैं, उनका उपहास करती हैं, उनकी भत्र्सना करती हैं, रमण कराती हैं एवं विरह का विषाद अर्थात दुःख भी उत्पन्न करती हैं-ये क्या नहीं कर सकती?’’ ।। 21 ।।
भर्तृहरि कहते हैं कि नारी के बिना ये संसार अंधकामय हो जायेगा-"दीपक, अग्नि, तारा-समूह, सूर्य और चन्दमा के रहते हुए भी हिरण के बच्चे के समान चंचल नेत्रों वाली सुन्दरी के बिना मुझे यह संसार अंधकारमय प्रतीत हो रहा है।’’ ।। 14 ।।
भर्तृहरि कहते हैं कि ‘‘इस संसार एवं चंचल संसार में विद्वानों के लिए दो ही गतियां सुलभ हैं। वैराग्य अवस्था में तत्वज्ञान रूपी अमृतरस का पान करते हुए अपने समय को व्यतीत करें। यदि ऐसा न हो तो अनुराग पक्ष में अपने पुष्ट स्तनों और सघन जंघनों में संभोग की इच्छावाली सुन्दर स्त्रियों के स्थूल काम-मन्दिर का स्पर्श-सुख अनुभव करें।’’ ।। 19 ।।
भर्तृहरि समझाते हैं कि हमारी तृष्णा बढ़ती ही जाती है-"जब तक स्त्री दिखाई नहीं देती तब तक तो देखने की इच्छा रहती है, देखने के पश्चात आलिंगन रस की इच्छा उत्पन्न हो जाती है और आलिंगन करने पर यह इच्छा होती है कि प्राण-प्यारी हमसे कभी अलग न हो।’’ ।। 23 ।।
भर्तृहरि बताते हैं कि रति किसके संग उत्तम होती है और क्यों-‘‘निश्चय ही कुलीन स्त्रियों की रति ही उत्तम है क्योंकि आरम्भ में ‘नहीं’, मन’ आदि शब्दों द्वारा, अनुराग विशेष न उत्पन्न करने वाला, तदन्तर उत्पन्न अभिलाषा वाला, तत्पश्चात लज्जा-उत्पादक फिर शरीर को शिथिल और धैर्य को नष्ट करने वाला तदनु प्रेमरस में निमग्न करना, तत्पश्चात सराहनीय एकांत क्रीड़ा का चातुर्य विस्तार करना, फिर निडर होकर अंगों को खींच लेना आदि के द्वारा वे अधिक सुखदायक होती हैं। ।। 25 ।।
भर्तृहरि कहते हैं कि ‘‘प्रेम विशेष से मधुर, स्नेहपूर्ण, रस से भरे, सन्दर्भ विशेष से मृदुल, मोहित करने वाले, हर्ष को जनाने वाले, स्वभावतः सुन्दर, विश्वासपूर्ण, काम को उत्पन्न करने वाले मृगनयनियों के एकान्त में कहे गये स्वच्छन्दतापूर्ण वचन सर्वस्व का हरण कर लेते हैं। ।। 30 ।।
संकलन-संजय कुमार गर्ग
Images from Pixabay & AI
नीति पर और आलेख पढ़िए-
कोई टिप्पणी नहीं :
एक टिप्पणी भेजें
आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुमूल्य है!