साथियों!! किसी से अपनी बात कहने के लिए तीन प्रकार की वाणी यानि वाॅयस का प्रयोग किया जा सकता है,
1-परा वाणी
2-अपरा वाणी
3-वैखरी वाणी
अब देखते हैं तीन प्रकार की वाणी के कौन से आश्चर्यजनक प्रभाव होते हैं-
1-परा वाणी
परा वाणी का प्रयोग दैनिक जीवन में हम किसी से बातचीत करने में करते ही हैं, इसे बोलने में होंठ, जीभ और मुख का प्रयोग किया जाता है। हमारी यह वाणी संसार को प्रभावित करने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, यह जितनी मधुर व सुन्दर होगी, हमारे संसारिक संबंध उतने ही मधुर व सुन्दर होंगे, कर्कश और कठोर वाणी से सभी दूर भागते हैं इससे बचने का प्रयास करते हैं। अतः संसारिक संबंधों में परावाणी का एक विशेष महत्व है।
परा वाणी का जप में प्रयोग-
यदि हम इस वाणी से जप करते हैं तो उसे वाचिक जप कहा जाता है, वाचिक जप वह होता है जो उच्चारण करके किया जाता है, जैसे ‘‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।’’ या और कोई भी मंत्र जिसका हम बोल-बोल कर जप करते हैं। ये वाचिक जप है, जो परा वाणी में किया जाता है इसका सीधा प्रभाव हमारे भौतिक शरीर पर पड़ता है, इस जप से हमारा भौतिक शरीर सुन्दर व तेजस्वी बनता है। साथ ही वह निरोगी भी रहता है।पूज्य गुरूदेव श्रीराम शर्मा आचार्य का कहना है कि-जब नये साधक जप प्रारम्भ करते हैं तो वे परा वाणी से वाचिक जप ही कर पाते हैं, क्योंकि अन्य प्रकार के जप अभ्यास से आते हैं, इसलिए इस जप को निम्न कोटि का जप माना जाता है। फिर भी शब्द-विज्ञान की उपयोगिता को स्वीकार करना ही होगा।
सूक्ष्मवेत्ताओं का मानना है कि इस जप से वाकसिद्धि मिलती है और षट् चक्रों में विद्यमान वर्णबीज शक्तियां जाग्रत होने लगती हैं।
भगवान मनु ने इस जप की महिमा का वर्ण करते हुए कहा है कि ‘‘यह विधि-यज्ञ से दस गुना श्रेष्ठ है।
2-अपरा वाणी
अपरा वाणी वह होती है, इसको बोलने में वैसे तो होंठ-जिव्या का प्रयोग होता है, परन्तु पास बैठे व्यक्ति को सुनायी नहीं देता कि ये क्या बोल रहे हैं। जैसे अक्सर कुछ व्यक्तियों की विशेष रूप से अंर्तमुखी व्यक्तियों की अपने आप से बात करने की आदत होती है, जबकि दूसरों को लगता है कि वे बड़बड़ा रहे हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि अपरा वाणी में एक फुसफुसाने जैसी आवाज होती है।
अपरा का जप में प्रयोग-
इसका प्रयोग मंत्र जप में अधिकतर साधकों द्वारा किया जाता है। इस वाणी में किये गये जप को उपांशु जप कहते हैं, जब पहली वाली परा वाणी का वाचिक जप सिद्ध हो जाता है तो साधक अपने आप ही अपरा वाणी से उपांशु जप करने लगता है।
मनुस्मृति में लिखा है कि उपांशु जप उसे कहते हैं ‘‘कि मन्त्र का उच्चारण होता रहे, होठ हिलते रहें परन्तु पास बैठा व्यक्ति भी उसे न सुन सकें, जापक स्वयं ही उसे सुने।’’
भगवान मनु ने इस जप को विधि-यज्ञ की अपेक्षा सौ गुना श्रेष्ठ बताया है।
यह जप शक्तिशाली जप होता है यह हमारे सूक्ष्म-शरीर को बलिष्ठ करता है। पूज्य गुरूदेव श्रीराम शर्मा आचार्य का कहना है कि जप के प्रभाव से स्थूल से सूक्ष्म शरीर में प्रवेश होता है और ब्राह्य वृत्तियां अंतमुखी होने लगती हैं, एकाग्रता बढ़ने लगती है, एक अद्भुत मस्ती सी प्रतीत होती है, जो केवल अनुभव की ही वस्तु है।
अपरा वाणी से किया गया उपांशु जप नियमित किया जाये तो यह हमारे सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करता है। जिससे हमें सूक्ष्म शक्तियों का आभास होने लगता है, दूसरे के मन की बातें उसके कहने से पहले ही हमें पता लगने लगती हैं। दूर बैठे व्यक्तियों को टेलिपैथी के माध्यम से संदेश भेजने या उसका संदेश प्राप्त करने में साधक सक्षम हो जाता है आदि अनेक सूक्ष्म शक्तियां साधक को हस्तगत होने लगती हैं।
3-वैखरी वाणी-
वैखरी वाणी इस वाणी में होंठ-जिव्या का प्रयोग नहीं किया जाता, इसे मन ही मन बोला जाता है, यानि अंतःकरण से बोला जाता है। पास बैठे व्यक्तियों को यह पता ही नहीं चलता कि यह कुछ बोल भी रहा है या नहीं।
अपरा का जप में प्रयोग-
वैखरी वाणी में किये गये जप को मानसिक जप कहा जाता है। पं0 दीनानाथ शास्त्री का कहना है कि ‘‘स्पष्ट बोलने से वाणी स्थूलता में रहती है और उसका प्रभाव भी सीमित स्थल में रहता है। पर मन के द्वारा मन्त्र के उच्चारण से वह वाक् सूक्ष्म हो जाती है, मानस जप का प्रभाव सारे आकाश में व्याप्त हो जाता है, साथ ही अपेक्षित स्थल पर पड़ता ही है।’’
इस मंत्र की महत्ता का वर्णन विष्णु पुराण, मनुस्मुति व ज्योतिषीय ग्रंथ वृहद् पाराशर में भी किया गया है।
मनुस्मृति में लिखा है कि ‘‘विधि यज्ञ की अपेक्षा मानसिक जप सहस्र गुना श्रेष्ठ माना गया है।’’
वैखरी वाणी से किये गये मानसिक जप से कारण शरीर सबल होता है, शास्त्रों मेें बताया गया है कि इस वाणी से महान ऋषियों में शाप व वरदान देने की क्षमता विकसित हो जाती है। किसी की हाय या बुरी नजर भी इसी वैखरी वाणी से निकली हुई शक्ति या क्षमता का ही परिणाम होती है। कबीर ने कहा भी है-
दुर्बल को ना सताईये जाकि मोटी हाय
बिना जीभ की सांस से लौह भस्म होई जाय।
जिस प्रकार लुहार की धौंकनी जिसमें वह लोहे का गर्म करता है, उसकी बिना जीभ के मुंह से निकली सांस या हवा से कोयले में चिंगारी भड़कती है और लोहा गर्म होकर पिघल जाता है, उसी प्रकार दुर्बल की हाय भी बहुत शक्तिशाली होती है।
प्रस्तुति: संजय कुमार गर्ग, वास्तुविद्, एस्ट्रोलाॅजर 8791820546 Whats-app
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