BHRATHARI'S VAIRAGYA SHATKAM IN HINDI
महाराज भर्तृहरि का ‘वैराग्य शतकम्’-अंतिम भाग

yogi%202.jpgवैराग्य शतकम् में भर्तृहरि आगे कहते हैं कि इस प्रकार का जीवन व्यर्थ है-‘‘निष्कलंक विद्या का अध्ययन नहीं किया, दान एवं भोग के लिये धन का उपार्जन भी नहीं किया, एकाग्रचित होकर प्रसन्न मन से माता-पिता की सेवा भी नहीं की, चंचल एवं विशाल नेत्रों वाली प्रियतमा का स्वप्न में भी आलिंगन नहीं किया। अहो! हमने तो कौओं की भांति अपने अमूल्य मानव जीवन को परान्न-भक्षण के लालच में व्यर्थ ही बिता दिया।‘‘।। 43।। ऐसा ही श्लोक ‘सुभाषितानी भा0’ में थोडे़ परिवर्तन के साथ आया है-‘‘पहली अवस्था (बाल्यवस्था) में विद्यार्जन नहीं किया, दूसरी अवस्था (युवावस्था) में धनार्जन नहीं किया, तीसरी अवस्था (प्रौढ़ावस्था) में पुण्यार्जन नहीं किया, तो चैथी अवस्था (वृद्धावस्था) में क्या किया जा सकेगा।’’ (सुभा0 भा0 169)
भर्तृहरि जी ‘संतुष्टि’ की सुन्दर परिभाषा देते हुये बताते हैं-‘‘हे राजन! हम वत्कल वस्त्रों को धारण करके संतुष्ट हैं और तुम रेशमी वस्त्र धारण करके प्रसन्न हो-इस प्रकार हम दोनों का संतोष तो समान ही है क्योंकि संतोष में किसी प्रकार की विशेषता नहीं है। संसार में दरिद्र वही है जिसकी तृष्णा विशाल है, मन के संतुष्ट होने पर कौन निर्धन है और कौन धनवान?’’।। 45।। अंग्रेजी के लेखक ‘डेनियल जी’ ने अपने साहित्य में उपरोक्त पद्य का अनुवाद ही कर दिया है-‘‘वह निर्धन नहीं है जिसके पास थोड़ा धन है वरन् दरिद्र वह है जिसकी अभिलाषाएं बढ़ी हुई हैं।’’
भर्तृहरि बदलते समय पर लिखते हैं कि- ‘‘हे मित्र! पहले तो तुम हम थे और हम तुम थे अर्थात हम-तुम में कोई अन्तर नहीं था, परन्तु पता नहीं कौन सी बात हुई कि अब हम समझते हैं कि हम हमीं हैं और तुम तुम्ही’’।। 59।। कबीर दास जी ने उपरोक्त को गुरू-शिष्य के संबंध में कहा है-‘‘जब मैं था गुरू नहीं अब  गुरू है मैं नाय। प्रेम गली अति सांकरी ता में दो ना समाय।।’’
भर्तृहरि शरीर की ‘क्षणभंगुरता‘ पर लिखते हैं कि- ‘‘जब प्रलय-अग्नि से स्वर्ण आदि अमूल्य रत्नों के भण्डार सुमेरू पर्वत भस्म हो जाते हैं, बडे-बड़े मगर और जल-जंतुओं का घर समुद्र भी उस प्रलयानल से सूख जाता है, पर्वतों से दबी हुयी पृथ्वी भी नष्ट हो जाती है तब हाथी के बच्चे के कान के अग्रभाग के समान चंचल इस शरीर की तो गणना ही क्या है? यह तो क्षणभंगुर ही है।’’।। 63।।
भर्तृहरि कहते हैं कि-‘‘कल्याणकारी परमात्मा में अपार भक्ति हो, ह्दय में जन्म-मरण का भय हो, बन्धु-बांधवों के प्रति मोह न हो, मन में काम के विकार न हों, संसर्ग दोषों से मुक्त हों और निर्जन, एकांत वनों में वास हो, यदि इस प्रकार वैराग्य उदय हो जाये तो इससे बढ़कर और किस सुख की अभिलाषा की जाये।’’।। 67।।
मन की ‘उछलकूद’ पर भर्तृहरि ने कितना सुन्दर लिखा है-‘‘हे चित्त! तू अपनी चंचलता से कभी बहुत नीचे पाताल में प्रविष्ट हो जाता है और कभी ऊंचे आकाश को लांघ जाता है तो कभी चारों दिशाओं में भ्रमण करता है, परन्तु तू कभी भूलकर भी अपने ह्दय-मन्दिर में विराजमान विमल ब्रह्मा का ध्यान नहीं करता जिससे तू मोक्ष के परमानन्द को प्राप्त कर सकता है।’’।। 69।।
भर्तृहरि कहते हैं कि मुनिजन इन के साथ सुख से सोते हैं-‘‘भूमि ही रमणीय शय्या है, उनकी भुजा ही उनका गुदगुदा तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वायु ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही उनका जलता हुआ दीपक है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है-इन सभी समानों के साथ मुनिजन सुख के साथ सोते हैं।’’।। 71।।
भर्तृहरि जी योगी के मन की तुलना समुद्र से करते हुए कहते हैं-‘‘जिस प्रकार मछली की उछलकूद से समुंद्र कभी भी चंचल अथवा तरंगित नहीं होेता, गम्भीर ही बना रहता है, इसी प्रकार मनस्वी, विचारशील, ब्रह्मज्ञानी अथवा योगी को ब्रह्मांड का लालच देकर भी नहीं लुभाया जा सकता अन्य पदार्थो की बात ही क्या है।’’।। 75।।
भर्तृहरि कहते हैं-‘‘चन्द्रमा की किरणें मनोहारिणी हैं, हरी घास वाली भूमियां भी रम्य है, साधुओं को समागम का सुख भी आनन्ददायक है, काव्यों की गाथायें भी मनोरम हैं, प्रणय-कलह में क्रोध से उत्पन्न नेत्र के कोनों में टिकी हुयी अश्रु-बिन्दुओं से चंचल प्रिया का मुख भी मन को हरने वाला है, परन्तु जब से संसार की अनित्यता का ज्ञान हुआ है, तब से हमें ये रम्य और मनोहारी वस्तुएं भी अच्छी नहीं लगती हैं।’’।। 76।।
भर्तृहरि कुम्हार से कहते हैं-‘‘हे प्रिय मित्र! कुम्हार जिस प्रकार गीली मिटटी के लौंदे को चाक पर चढ़ाकर, चाक को डण्डे से बार-बार घुमाता है और उससे अपनी इच्छानुसार बर्तन बनाता है, उसी प्रकार संसार का निर्माण करने वाला ब्रह्मा हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ाकर चाक को विपत्तियों के डण्डे से लगातार घुमाता हुआ हमारा क्या करना चाहता है-यह हमारी समझ में नहीं आता।’’।। 87।। इसी बात को कबीरदास जी ने कुछ अलग ढ़ंग से रखा है-‘‘मांटी कहै कुम्हार से तू क्यों रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंदूगी तोय।’’
भर्तृहरि कहते हैं-‘‘वे योगी  धन्य हैं जो पर्वत की कन्दराओं में रहते हुये ब्रह्मज्योति का ध्यान करते हैं, और पक्षीगण उनकी गोद में बैठकर उनके आनन्द-आश्रुओं का निर्भय होकर पान करते हैं। हम लोगों का जीवन तो मनोरथों के महल की बावड़ी के किनारे के क्रीड़ा-उद्यान में क्रीड़ा करते हुये व्यर्थ ही व्यतीत हो रहा है।’’ ।। 90।।
भर्तृहरि समझाते हैं कि भूख-प्यास और कामाग्नि एक प्रकार की औषधी ही हैं-‘‘जब मनुष्य का कंठ प्यास से सूखने लगता है तब वह शीतल जल का पान करता है, भूख से सताये जाने पर मनुष्य शाक व स्वादिष्ट शाली के चावलों के भात से अपनी क्षुधा-निवृत्ति करता है, कामाग्नि के प्रदीप्त होने पर वह स्त्री का गाढ़ालिंगन करता है। विचार करने से ज्ञात होता है जल-पान आदि एक-एक रोग की एक-एक औषधी है परन्तु मूर्ख लोग वास्तविक तथ्य को न जानकर इन्हीं में सुख समझते हैं।’’।। 83।।
भर्तृहरि लिखते हैं कि एकान्त सेवन हर किसी को योगी नहीं बना सकता-‘‘ज्ञान सत्पुरुषों के मान और मद आदि का नाश करता है परन्तु वही ज्ञान दुष्टों के मद और मान आदि अवगुणों की वृद्धि करता है, जैसे एकान्त स्थान, योग-साधना की स्थली होने के कारण योगियों के लिये तो मुक्ति दिलाने वाली होती है परन्तु वही स्थान कामियों की काम-ज्वाला को बढ़ाने वाला होता है।’’।। 81।।
भर्तृहरि अंतिम विदाई मांगते हुये कहते हैं-‘‘हे माता पृथ्वी! हे वायु पिता! हे मित्र अग्नि! हे सुबन्धो जल! हे सहोदर भाई आकाश! अब मैं आपको अन्तिम विदाई का प्रणाम करता हूँ, क्योंकि आपकी संगति के कारण मैंने पुण्य-कर्म किये और पुण्यों के फलस्वरूप मुझे निर्मल ज्ञान की प्राप्ति हुई उस ज्ञान के द्वारा सांसारिक मोह माया दूर हो गयी है, जिससे अब मैं परबह्म परमात्मा को प्राप्त हो रहा हूंँ-मुक्ति को प्राप्त हो रहा हूंँ।’’।। 78।।
(चित्र गूगल-इमेज से साभार!)
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14 टिप्‍पणियां :

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    1. आदरणीया परी जी, सादर नमन! कमेंट्स के लिए सादर आभार व् धन्यवाद!

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  2. बहुत ही सुन्दर और कल्याणकारी सार्थक प्रस्तुति, आपका आभार आदरणीय।

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    1. पोस्ट को पढ़ने व् कमेंट्स करने के लिए धन्यवाद! आदरणीय राजेन्द्र जी!

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  3. बहुत खूब ... गहरा जीवन समेटा है इन भावों में ...

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    1. पोस्ट को पढ़ने व् कमेंट्स करने के लिए धन्यवाद! आदरणीय दिगम्बर जी!

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  4. जीवन को नई दिशा और ऊर्जा देने वाली प्रस्तुति.
    आभार.

    हिंदी ब्लॉग

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    1. आदरणीय अनिल जी! कमेंट्स के लिए धन्यवाद!

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    1. आदरणीया प्रतिभा जी, कमेंट्स के लिए सादर धन्यवाद!

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  6. उत्तम प्रस्तुति....जय सिया राम

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    1. आदरणीय पाण्डेय जी! जय श्री राम! कमेंट्स करने के लिए धन्यवाद!

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