अपने हाथों की लकीरों मे बसा.....मुक्तक और रूबाइयां-10

अपने हाथों की लकीरों मे
अपने हाथों की लकीरों मे...

(1)
अपने  हाथों  की   लकीरों   मे  बसा  ले  मुझ को
मै  हूँ तेरा तू,  नसीब  अपना  बना  ले  मुझ  को
वादा फिर वादा है, मै जहर भी पी जाऊं 'कतील'
शर्त  ये  है  कोई,  बाहों    में  संभाले   मुझ   को
-क़तील शिफ़ाई

(2)
छूटे   कभी   जो   कैद   से   तूफान     में   घिरे
एक   दर्द    साथ-साथ    हमेशा    लिये    फिरे
जब भी खुशी मिली तो छिनी हमसे इस तरह
बच्चा  जो  मां  की गोद से लहरों में जा गिरे।
-रामानन्द दोषी

(3)
सांस  आती है  तो मरने का  गुमां  होता है
फिर  भी मालूम  नहीं  दर्द  कहां   होता  है
मेरे  सीने  में  भी चाहे  हैं  कई, लेकिन
यों
जिस तरह बन्द इमारत में धुआं होता है।
-बालस्वरूप राही

 (4)
प्रेम  के गीत लिख व्याकरण पर  न जा
मन की पीडा समझ आचरण पर न जा
मेरा  मन  कोई  गीता से  कम  तो  नहीं
खोलकर  पृष्ठ पढ़,  आवरण  पर न जा।
-श्रवण राही

(5)
मजबूरियों का पास* भी कुछ था वफा के साथ
वो  रास्ते  से  फिर  गया  कुछ दूर  आ के साथ
कुर्बे-बदन*  से   कम  न  हुये  दिल  के  फासले
इक  उम्र  कट  गयी किसी नाआश्ना* के साथ।
*लिहाज, *शरीर का सामिप्य, *अपिरिचित
 

-सलीम अहमद

(6)  
अश्रु   जाते   हैं,   इक   दर्द   के   पिघलने  पर
शाम घिर आती है जैसे कि दिन के ढलने पर
रात  वीरान  में  कुछ  और भी  लगती  गहरी
दूर  बस्ती  में   कोई   एक   दिया  जलने  पर
-शरदेन्दु शर्मा

संकलन-संजय कुमार गर्ग 
 (चित्र गूगल-इमेज से साभार!)
मुक्तक/शेरों-शायरी के और संग्रह 

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