अक्ल पे मरदों की पड़ गया...मुक्तक और रुबाइयाँ


अक्ल पे मरदों की पड़ गया...मुक्तक और रुबाइयाँ
अक्ल पे मरदों की पड़ गया
 मैकदा    रात  गम  का  घर  निकला
दिल,  हवेली  तले  खंडहर  निकला।
मैं   उसे   ढूंढता      था    आंखों   में
फूल  बनकर वो  शाख  पर निकला।
जिन्दगी   एक    फकीर   की  चादर
जब  ढके  पांव   हमने  सर निकला।
जब    से    जाना    वो    बहादुर    है
दिल से कुछ दुश्मनों का डर निकला।
-बशीर "मेरठी"

बे  परदा  नजर  आई  जो कल चन्द बीबियां
अकबर  जमीं  में  गैरते-कौमी   से गड़   गया
पूछा  जो  हमने   आपका  परदा  किधर गया
बोली वो, यों कि अक्ल पे मरदों की पड़ गया।
-अकबर इलाहाबादी

वादा  करता  है  किनारे  को   लहर  देता है,
लाख गम, सुख  का  महज एक पहर देता है,
उम्र   की  राह  कटी  तब  ये कहीं राज खुला
प्यार  अमृत  के  बहाने   ही  जहर  देता है।
-बालस्वरूप राही

दूर रहूं  तो  नींद  न आये,  पास रहूं  तो जी घबराये
जाने यह कैसा आकर्षण जो डस ले जो लहर न आये
रात  मिलन  की और लजाकर कोई ऐसे दीप बुझाये
लगता  जैसे  एक  उजाला,   एक उजाले से शरमाये।
-रूपनारायण त्रिपाठी

तिनका  है  बशर   मौजे-फना*  के आगे
चलती   नहीं कुछ उसकी कजा* के आगे
क्या  चीज  है  मौत,  आ  बताऊं तुझको
इंसान  की  शिकस्त  है  खुदा  के आगे।
*मौजे फना-बर्बादी की लहर *कजा-मौत
-त्रिलोक चन्द महरूम

मौजे-हवादिस*   का  थपेड़ा   न   रहा
कश्ती  वह  हुई  गर्क  वह  बेड़ा न रहा
सारे झगड़े थे  जिन्दगानी तक अनीस
जब हम  न रहे तो कोई बखेड़ा न रहा।
*मौेजेे-हवादिस-हादसों की लहर
-मीर अनीस लखनवी
 (चित्र गूगल-इमेज से साभार!)
संकलन-संजय कुमार गर्ग 

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