अंग्रेजी वर्ष की अंतिम एकादशी ‘‘सुफला एकादशी की कथा’’

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धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से मोक्षदा एकादशी की कथा सुनने के बाद कहा! हे प्रभु ! आपने मुझे मोक्षदा एकादशी का कथा सुनायी, अब आप मुझे पौष मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी के बारे में भी बताईये, इस एकादशी का क्या नाम है? और इस एकादशी का व्रत करने से क्या फल मिलता है? इस एकादशी की कथा भी मुझे सुनाइये।
 
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-हे धर्मराज! पौष मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी सुफला एकादशी कहलाती है। इस एकादशी का व्रत को करने से भगवान श्री हरि नारायण प्रसन्न होते हैं और वे भक्तों के जीवन में आने वाली समस्त बाधाओं को समाप्त कर देते हैं, ऐसे विष्णु भक्त संसार के सभी दुःखों से मुक्त हो जाते हैं और अंत में भगवान विष्णु के लोक चले जाते हैं। अब मैं तुम्हे सुफला एकादशी का कथा सुनाता हूं-
 

सुफला एकादशी व्रत कथा-

पौराणिक काल में चम्पावती राज्य में महिष्मान नाम के राजा राज्य करते थे। राजा अत्यंत धर्मप्रेमी थे तथा अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे। राजा का ज्येष्ठ पुत्र लुम्बक था। वह बड़ा ही कुकर्मी था और वह वैश्यावृत्ति और परस्त्रीगमन में लिप्त रहता था। वह न तो पूजा-पाठ करता था, बल्कि देवी-देवताओं पर अपमान जनक बातें करता था। राजा ने अनेकों बार उसे समझाया कि वह अपने कुकर्मो को त्याग दें, परन्तु लुम्बक अपनी आदत से बाज नहीं आया। अंत में राजा ने उसे देश से निकाल दिया।
 
अब लुम्बक जंगलों में रहने लगा और एक पीपल के पेड़ के नीचे उसने अपना ठिकाना बना लिया। वह आसपास के गांवों में चोरी करके अपना पेट भरने लगा। कभी कुछ नहीं मिलता तो वह जंगली जानवरों का शिकार करके उन्हे खा लिया करता था, परन्तु उसने अपने कुकर्मों को नहीं छोड़ा। समय बीतता गया, एक बार पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी की रात आयी। उस रात काफी ठन्ड थी। ठंड के कारण लुम्बक रात भर सो नहीं पाया, और अधिक ठंड के कारण वह बेहोश हो गया, और अगले दिन भी बेहोश रहा। परन्तु दोपहर में सूर्य की किरणों से उसकी बेहोशी टूट गयी और उसे होश आ गया। उसे भूख लगने लगी, शिकार करने की ताकत उसके शरीर में नहीं थी। अतः उसने जंगल में वृक्षों के नीचे पड़े फलों को इकट्ठा करना प्रारम्भ कर दिया, फलों को इकट्ठा करके वह पीपल के पेड़ के नीचे आ गया, जहां उसने अपने रहने का ठिकाना बना रखा था। उसने सारे फलों को पीपल के पेड़ के नीचे इकट्ठा किया और अपनी किस्मत को कोंसने लगा। अपने आप से रूष्ट होकर उसने वह फल स्वयं नहीं खाये और वहीं छोड़ दिये। उस दिन सुफला एकादशी थी, इस प्रकार उससे सुफला एकादशी का व्रत अनायास ही हो गया, जिससे भगवान श्री हरि प्रसन्न हो गये। एकादशी की रात्रि भी लुम्बक सर्दी के कारण नहीं सो पाया और पूरी रात उसने भगवान श्री हरि नारायण का नाम लेकर बितायी। इस प्रकार से बिना किये ही अनजाने में उससे सुफला एकादशी का व्रत हो गया। व्रत के प्रभाव से उसका मन बदल गया और वह धर्म के मार्ग पर चलने लगा।
 
कुछ समय बाद उसके पिता राजा महिष्मान को उसके सुधर जाने की खबर मिली तो राजा ने उसे अपने राज्य में वापस बुला लिया। पुत्र का सन्मार्ग पर चलते देख राजा महिष्मान ने उसे चंपावती का राजा बना दिया और स्वयं तप करने जंगलों में चले गये। गृहस्थ मार्ग पर चलते हुए लुम्बक को एक पुत्र हुआ। जब लुम्बक बूढ़ा हुआ तो लुम्बक ने अपने पुत्र को राजा बना दिया और स्वयं तप करने जंगलों में चला गया। जिस प्रकार भगवान श्री हरि ने लुम्बक का कल्याण किया उसी प्रकार हमारा भी कल्याण करें।
बोलो सत्य नारायण भगवान की जय! हरि नमः हरि नमः हरि नमः
 
कबीर  कुत्ता  राम का, मुतिया  मेरा  नाऊं
गलै राम की जेबड़ी, जित खैंचे तित जाऊं।

कबीर दास जी कहते हैं मैं तो राम का कुत्ता हूं और मोती मेरा नाम है, मेरे गले में राम की रस्सी बंधी हुई हैं, जिस ओर वे मुझे खींचते हैं मैं उसी ओर चला जाता हूं।
 
तो  साथियों आपको ये कथा कैसी लगी, कमैंटस करके बताना न भूले, यदि कोई जिज्ञासा हो तो कमैंटस कर सकते हैं, और यदि आप नित्य नये आलेख प्राप्त करना चाहते हैं तो मुझे मेल करें। अगले आलेख तक के लिए मुझे आज्ञा दीजिए नमस्कार जयहिन्द।
प्रस्तुति: संजय कुमार गर्ग, एस्ट्रोलाॅजर, वास्तुविद् 8791820546 (Whats-app)
sanjay.garg2008@gmail.com

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