भगवान श्री कृष्ण ने कहा! हे महाबाहो! कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा एकादशी है। इस एकादशी का व्रत करने से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। अब मैं रमा एकादशी का कथा सुनाता हूं ध्यान से सुनिए-
पौराणिक काल में मुचुकुंद नाम का एक धर्मात्मा राजा राज्य करता था। वह बड़ा विष्णुभक्त और धर्मप्रेमी था। उसकी प्रसिद्धि चारों दिशाओं में थी, इन्द्र, कुबेर, वरूण और विभीषण सहित अनेक महान राजा उसके मित्र थे। राजा मुचुकुंद एकादशी का व्रत पूरे नियम व कठोरता से करते थे, उनके राज्य की सारी प्रजा यहां तक उसके राज्य के पशु-पक्षी तक एकादशी के व्रत का कठोरता से पालन थे। उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम चन्द्रभागा था। उसने अपनी पुत्री चन्द्रभागा का विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र सोभन से किया था।
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एक बार उसकी जमाई सोभन अपनी ससुराल राजा मुचुकुंद के घर आया हुआ था। तब कार्तिक का मास चल रहा था, उस दिन कार्तिक मास की दशमी थी। अगले दिन रमा एकादशी थी। एकादशी को सभी व्रत रखते थे। राजा मुचुकुंद ने अपने राज्य में सभी को एकादशी का व्रत रखने और उसका कठोरता से पालन करने की मुनादी करायी। चन्द्रभागा यह सोचकर बहुत चिंतित हुई कि उसके पति तो बहुत दुर्बल शरीर दुर्बल व ह्दय वाले हैं वे एकादशी का व्रत कैसे करेंगे। क्योंकि उसे पिता ने सबको एकादशी का व्रत करने की आज्ञा दी है। चन्द्रभागा ने अपने पति से कहा हे प्रिय! मेरे पिता के राज्य में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं कर सकता। यहां तक कि यहां पशु-पक्षी भी अन्न, जल, तृण ग्रहण नहीं करते। यदि तुम उपवास नहीं कर सकते तो तुम यहां से अन्य स्थान पर चले जाओ, यहां रहोगे तो तुम्हे भी उपवास अवश्य करना पड़ेगा।
अन्य सभी के साथ राजा सोभन ने भी एकादशी का व्रत किया, वह पूरे दिन भूख प्यास से अत्यंत व्याकुल रहा। रात में सोभन अत्यधिक कष्ट और पीड़ा सहता रहा। प्रातःकाल होने से पहले ही भूख-प्यास से व्याकुल सोभन ने अपने प्राण त्याग दिये।
राजा मुचुकुंद ने सोभन के शरीर का दाह-संस्कार न करके उसे जल-प्रवाह करा दिया और अपनी पुत्री चन्द्रभागा को सती न होने की आज्ञा दी। उसने पुत्री से कहा कि भगवान विष्णु पर भरोसा रखे। चन्द्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया और भगवान विष्णु पर भरोसा रखकर उनकी भक्ति में लीन रही और एकादशी के व्रत करने लगी।
उधर रमा एकादशी के प्रभाव व भगवान विष्णु की कृपा से सोभन के शरीर को जल से निकाल लिया गया और वे जीवित हो गये। वहां उन्हें मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त एक शत्रु रहित देवपुर नाम का एक उत्तम नगर प्राप्त हुआ। और उन्हें वहां का राजा बना दिया गया। उनके महल में स्वर्ण-रत्न जड़ित खम्बे लगे हुये थे। राजा सोभन के दरबार में गंधर्व और अप्सराएं नृत्य करती थीं, राजा की छवि दूसरे इन्द्र देव जैसी प्रतीत होती थी।
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मुचुकुंद नगर का एक ब्राहण जिसका नाम सोमशर्मा था वह तीर्थयात्रा पर भ्रमण करने के लिए अपने राज्य से निकला था। यात्रा की इसी कड़ी में वह घूमते-घूमते देवपुर राज्य में पहुंच गया। वहां उसने राजा सोभन को राज सिंहासन पर देखा तो वह सोभन को पहचान गया कि वह तो हमारे राजा के जमाई हैं। उन्हें जीवित देख सोम शर्मा बहुत प्रसन्न हुआ। वह राजा सोभन के नजदीक गया।
ब्राह्मण सोम शर्मा को देखते ही राज सोभन उन्हें पहचान गये और अपने सिंहासन से उठ कर उन्होंने अपनी पत्नि और श्वसुर का हाल चाल पूछा।
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सोभन की बात सुनकर सोम शर्मा ने उत्तर दिया-आपकी पत्नि और श्वसुर कुशलता से हैं। परन्तु आप कैसे जीवित हुए इसके बारे में बताइये? आपने तो रमा एकादशी का व्रत करते हुए प्राण त्याग दिये थे? मुझे ऐसे सुन्दर और विचित्र नगर में आपको राजा के पद पर देखकर आश्चर्य हो रहा है। ऐसा सुन्दर राज्य न तो मैंने पहले कभी देखा है और ना ही कभी सुना है, ये आपको कैसे प्राप्त हुआ। इसके बारे मे बताइये।
राजा सोभन की बात सुनकर ब्राह्मण ने पूछा-हे राजन् ये अस्थिर क्यों है और इसको स्थिर कैसे किया जा सकता है, कृप्या करके मुझे बताइये मैं आपकी सहायता करूंगा।
तब राज सोभन ने कहा-हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! मैंने रमा एकादशी का व्रत तो किया था इसमे दो राय नहीं है, परन्तु यह व्रत मैंने विवशतावश और श्रद्धारहित होकर किया था। व्रत के प्रभाव से मुझे एक सुन्दर राज्य तो प्राप्त हुआ परन्तु श्रद्धारहित व्रत करने के कारण मुझे अस्थिर राज्य मिला। यदि तुम ये सब वृतान्त मेरी पत्नि चन्द्रभागा से बताओगे तो वह इस राज्य को स्थिर कर सकती हैं।
चन्द्रभागा के वचनों को सुनकर ब्राह्मण सोमशर्मा चन्द्रभागा को मंदराचल पर्वत के पास स्थित वामदेव ऋषि के आश्रम ले गये। ऋषि वामदेव ने उनकी बात सुनी और चन्द्रभागा का मंत्रों से अभिषेक किया। मंत्रों के दिव्य प्रभाव से दिव्य शरीर को धारण करके वह अपने पति के राज्य चली गई। अपनी पत्नि को देखकर राजा सोभन अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्हें अपने बाई ओर सिंहासन पर बैठाया।
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प्रसन्न होकर चन्द्रभागा ने बताया कि हे स्वामी! मैं अपने पिता के घर में आठ वर्ष की आयु से एकादशी के व्रत कर रही हूं। उन्हीं व्रतों के प्रभाव से आपका यह नगर स्थिर हो जायेगा और यह नगर प्रलय काल के अंतिम समय तक स्थिर रहेगा।
चन्द्रभागा सुन्दर और दिव्य वस्त्रों और अलंकारों से युक्त होकर अपने पति के साथ उस नगर में सुखपूर्वक रहने लगी।
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