ओमप्रकाश आदित्य के खट्टे-मीठे और तीखे मुक्तक!


गुण को गंगू का है आसरा

राजनैतिक  पतन   देखिये
कोई पत्थर  कोई  कोयला
भोज के  नवरतन देखिये।

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दिन का मालिक है मिल का नहीं
क्यों    करें   सूर्य    की   वन्दना
सायरन    से    मिली     है   हमें
भोर   होने    की   शुभ   सूचना।

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कवि को रोटी न दो पेट भर
वर्ना  खाकर वो सो जायेगा
पेट   में   दर्द    पैदा    करो
गीत का  जन्म हो जाएगा।

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धन   के   संकेत   हैं    और    हम
मस्ती क्या, मान क्या, मन है क्या
एक   वेतन    के   दिन   के  सिवा
नौकरी     में    नयापन   है   क्या।

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सचाई  पर  सफेदी  पुत रही है
सुहागा कोयलों पर चढ़ गया है
न तुम पीछे पड़ों इंसानियत के
जमाना बहुत आगे बढ़ गया है।

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दिन  में पत्नी के ताने सुने
रात मच्छर  के  ताने  सुनूं
एक ही कान से किस तरह
गालियां  और  गाने  सुनूं।

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लिखा ‘टू लेट’ जिन्होने जिन्दगी भर
उन्हें  गीता   पढ़ाकर   क्या   करोगे
जिन्होंने  बैंक  में  दिल  रख दिये हैं
उन्हें कविता  सुनाकर  क्या  करोगे।

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अगर मैं ‘शब्द’ के पीछे न  पड़ता
तो बंगला आज आलीशान  होता
किताबों से निकलता ‘अर्थ’ कोई
तो मैं सबसे  बड़ा  धनवान होता।

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हृदय का आईना किसको दिखाऊं
यहां  सब  शक्ल  से पहचानते हैं
करूं  निर्यात  अपनी  आत्मा का
विदेशी  मोल  इसका  जानते  हैं।

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सजावट   को   जरा-सी   सादगी   दो
कहीं   दुकान    मानव   हो   न  जाये
न मन की खाट पर मखमल बिछाओ
      कहीं  इन्सान  भीतर   सो  न   जाये।      
-ओमप्रकाश आदित्य   

संकलन-संजय कुमार गर्ग sanjay.garg2008@gmail.com
मुक्तक/शेरों-शायरी के और संग्रह 
प्यास वो दिल की बुझाने कभी.....मुक्तक और रुबाइयाँ !
देखे 'जिन्दगी' के विभिन्न 'रूप', शायरों-कवियों की 'नजरों' से!     

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