लोगों को कहने दो, मंजिल की ओर चलते चलो....

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सौरभ एक दिन अपने नाना जी के साथ अपने ननिहाल से शहर जा रहा था, उस समय साईकिल का काफी चलन था, उसके नाना जी ने उसे साइकिल पर बैठाया और शहर की ओर चल दिये, कुछ दूर चलने के बाद रास्ते में कुछ महिलायें जा रही थी, उनमें से एक बोली देखों इस लड़के को बुड्डा साईकिल चला रहा है और ये आराम से बैठा है, इसे शरम नहीं आती, बुड्डे से साइकिल चलवाते हुए.....!! सौरभ को बहुत बुरा लगा वह अपने नाना जी से बोला नाना जी आप बैठिऐ, मैं साईकिल चलाता हूं, काफी मना करने के बाद उसके नाना जी साईकिल पर बैठ गये और सौरभ साईकिल चलाने लगा... कुछ दूर जाने के बाद रास्ते में कुछ आदमी मिले, उन्होंने सौरभ के नाना जी पर कमैंटस कसा कि आराम से बैठा है और लड़के से साईकिल चलवा रहा है....। अब नाना जी को बुरा लगा तो वे साईकिल से उतर गये, और उन्होंने सौरभ को पीछे बैठा लिया। ये एक सच्ची घटना है, ऐसी जैसी कि आपने एक कहानी में पढ़ी होगी जिसमें एक किसान, उसका लड़का गधे को लेकर जा रहे थे, इस कहानी में कभी किसान गधे पर बैठता तो कभी उसका लड़का, और कभी दोनों गधे पर बैठ जाते, यहां तक कि उन्होंने गधे को ही सिर पर उठा लिया। परन्तु उनकी हर स्थिति में रास्ते भर उनकी आलोचना होती रही। उन की हर स्थिति-परिस्थिती में उनको आलोचक मिलते रहे। साथियों!! ऐसी ही अनेक स्थितियां आपको भी अपने दैनिक जीवन में देखने को मिलती होगी।
 
ऐसी ही एक दूसरी सच्ची घटना आपसे शेयर करना चाहता हूं-एक मध्यमवर्गीय युवक ने सैकेंड हैंड गाड़ी खरीदी, और अच्छी प्रकार से उसे चलाने भी लगा, तब भी उसकी आलोचना हुई, या कहना चाहिए कानाफुसी हुई, ‘‘गाड़ी लाया है, औकात है इसकी गाड़ी की???’’ वह युवक अपनी बचत के पैसों से गाड़ी को सही तरीके से रखने लगा, दैवयोग से एक दिन गाड़ी से एक छोटी सी दुर्घटना हो गयी.. भई! जब गाड़ी सड़क पर चलेगी तो थोड़ा बहुत लग भी सकती है, उसकी भी कहीं लग गयी, अगले दिन उसकी गाड़ी पर निशान देखकर आलोचना/ कानाफूसी करने लगे देखों! ‘‘इसके बाप ने भी कभी गाड़ी चलाई है कि ये चला रहा था, ठोक दी?’’
 
इस प्रकार ये दुनिया हर स्थिति में आपकी आलोचना जरूर करेगी, चाहे आप कितना भी अच्छा क्यों न करके चलो!! कभी भी लोगों की आंखों को आईना मत बनाइये, केवल और केवल अपने दिल के आईने में झांक कर देखो कि क्या मैं सही हूं या नहीं??
 
एक व्यक्ति टीका लगा कर पहली बार अपने आफिस गलती से पहुंच गया, हालांकि वह प्रतिदिन मंदिर जाता था और वहां टीका लगवाता था, परन्तु इस भय से कि लोग क्या कहेंगे...? वह पौंछ देता था, उस दिन उसके पौंछना याद नहीं रहा, सभी ने उसे गौर से देखा और टीका लगाने पर उसका मजाक बनाने लगे, पंडित जी हो गये हों??, क्या बात है जी??? आदि आदि उसका मजाक सा उड़ाने लगे, मजाक उड़ाने वालों सारे ही हिन्दू थे, उसके मुस्लिम साथियों ने इस पर कोई कमैंटस नहीं किया, उस व्यक्ति ने तब से टीका लगाकर आफिस जाना छोड़ दिया। क्या टीका लगाना गुनाह है??  ये तो ऐसा ही हो गया जैसा इश्क में रोते हुए इन शाॅयर साहब के साथ हुआ था-
इश्क ने खायी है लोकलाज से क्या मात।
दो कहकहे  लगे  तो मेरे अश्क थम गये।।
 
प्रबुद्ध पाठकों! हम दूसरों की मामूली आलोचना से ही परेशान हो जाते हैं, और जो कुछ सही भी कर रहे होते हैं उसे भी करना छोड़ देते हैं, जबकि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि ‘‘जिस प्रकार एक निराश चोर चोरों को पकड़वाने वाला बन जाता है, या कहिए जब एक अपराधी मुखबीर बन जाता है, उसी प्रकार निराश होकर एक व्यक्ति आलोचक बन जाता है।’’
 
हमारे किसी काम की हंसी उड़ने के बाद हमें अपने काम को देखना चाहिए कि क्या यह नैतिकता की दृष्टि से सही है? क्या यह सामाजिकता की दृष्टि से सही है?? क्या यह धार्मिकता की दृष्टि से सही है?? यदि तीनों दृष्टि से आपका उत्तर हां!! में आये तो आपको अपने काम  को बीच में नहीं रोकना चाहिए, और आगे बढ़ते ही रहना चाहिए। ‘‘जर्मन की लोकोक्ति है कि एक शेर को भी मक्खियों से रक्षा करनी पड़ती है।’’
 
साथियों!! हम जब भी कोई काम करना चाहते हैं या फिर नया काम करने का प्रयास करते हैं तो उसकी आलोचना जरूर होती है। पूज्य गुरूदेव पंडित श्री राम शर्मा आचार्य ने कहा है कि ‘‘जब आप कोई नया काम करना प्रारम्भ करते हैं तो उसे तीन स्थितियों से गुजरना पडता है, पहली स्थिती में आपकी आलोचना होती है, यदि आप तब भी अपने काम को करना जारी रखते हैं तो दूसरी स्थिती में लोग आपका विरोध करने लगते हैं, यदि आप फिर भी अपना काम नहीं रोकते तो तीसरी स्थिती में लोग आपके काम का समर्थन करने लगते हैं।’’ इस प्रकार हर नये-पुराने कार्यों का इन्हीं स्थितियों से गुजरना पड़ता है, इसलिए हमें आलोचनाओं से नहीं घबराना चाहिए बल्कि देखना चाहिए कि हमारा कार्य कौन सी स्थिति से गुजर रहा है।
 
जब भी आप अपने काम की आलोचना से परेशान हो जाये और आप उसे छोड़ने का मन बना लें तो सबसे पहले तो ये देखें कि क्या हमारा कार्य नैतिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से उचित है? यदि हां!! है तो उसे मत रोकिये क्योंकि "दूसरे तुम्हारे विषय में क्या सोचते हैं, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि इसकी अपेक्षा अपने विषय में तुम्हारे विचार क्या हैं यह अधिक महत्वपूर्ण हैं।" इसलिए उपनिषदों में कहा गया है "चरैवेति चरैवेति" अर्थात चलते रहो, चलने और आगे बढ़ने का नाम ही जीवन है। जीवन में कभी भी हताश या निराश होकर लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती, इसलिए लोगों का कहने दो और मंजिल को ओर चलते चलो.......
 
प्रस्तुति: संजय कुमार गर्ग, लेखक, वास्तुविद्, एस्ट्रोलाॅजर 8791820546 Whats-app
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2 टिप्‍पणियां :

  1. बहुत सही कहा। जिन्हें कुछ कहना है वे हर हाल में कहते रहेंगे। जो उचित हो वह करते रहना चाहिए।

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  2. डॉ. शबनम जी, कमैंट्स ले लिए धन्यवाद !

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